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________________ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ५५) १३९ भी जरूरी है। जबकि पाणिनीय परंपरा में अपवाद में ही अनवकाश का समावेश कर दिया है। सिद्धहेम में उसी प्रकार अपवाद में अनवकाश का समावेश करना संभव है, तथापि दोनों में सूक्ष्म फर्क है उसका ज्ञापन करने के लिए भिन्न भिन्न बताये हैं और वही उचित ही है, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं। ॥ ५५ ॥ उत्सर्गादपवादः ॥ उत्सर्ग से अपवाद बलवान् होता है । उदा. 'आपचन्ति अस्मिन् इति आपाकः' । यहाँ 'पुंनाम्नि घः' ५/३/१३० से होनेवाले घ का अपवाद 'व्यञ्जनाद् घञ्' ५/३/१३२ से होनेवाला घञ् प्रत्यय ही होगा किन्तु औत्सर्गिक 'घ' पत्यय नहीं होगा। इसके ज्ञापक के रूप में गोचर-सञ्चर-वह-व्रज-व्यज -खलापण-निगम-बक-भग-कषाकषनिकषम्' ५/३/१३१ से गोचर - इत्यादि शब्दों के निपातन को बताया गया है। यदि इन शब्दों का घ प्रत्ययान्त के रूप में निपातन न किया जाय तो इस न्याय से 'पुंनाम्नि घः' ५/३/१३० का बाध होकर, 'व्यञ्जनाद् घञ्' ५/३/१३२ से घञ् ही होता । यह न्याय असमर्थ/अनित्य है क्योंकि, अगले न्याय से, इस न्याय के एकान्तत्व नित्यत्व का बाध होता है। इसके अलावा अन्य ज्ञापक भी बताया जा सकता है। उदा. 'असरूपोऽपवादे वोत्सर्गः प्राक् क्ते:' ५/१/१६ सूत्र में बताया गया है कि अपवाद रूप प्रत्यय के साथ समान रूप न हो ऐसा औत्सर्गिक प्रत्यय अपवाद के स्थान में विकल्प से होता है यदि वह अपवादविषयक प्रत्यय 'स्त्रियां क्तिः' ५/३/९१ के पूर्व आया हो तो । यदि उत्सर्ग से अपवाद बलवान् न होता और अपवाद के स्थान में उत्सर्ग होता ही तो इस प्रकार के सत्र की आवश्यकता ही नहीं थी । शायद ऐसा सत्र बन होता तो वही 'सिद्धे सत्यारम्भो नियमार्थः ॥' न्याय के अनुसार नियमार्थ होता किन्तु ऐसा नियम उपर्युक्त सूत्र में नहीं है, इससे ज्ञात होता है कि, इसे छोडकर अन्य कृदन्त और अन्यत्र सर्व स्थान में जहाँ जहाँ अपवाद स्वरूप प्रत्यय होता है वहाँ औत्सर्गिक प्रत्यय नहीं होता है। यह न्याय शाकटायन, चान्द्र परम्परा और पाणिनीय परम्परा में कहीं भी बताया नहीं है। पाणिनीय परम्परा में 'अपवादात्क्वचिदुत्सर्गोऽपि' न्याय प्राप्त है और यह न्याय उसके उद्गम का कारण है, अतः इस न्याय की प्रवृत्ति पाणिनीय परम्परा में हुई है । उत्सर्ग सामान्य शास्त्र है और अपवाद विशेष शास्त्र है, अतः विशेष शास्त्र सामान्य शास्त्र का बाध करता ही है, ऐसा सर्वस्वीकृत नियम होने से, पाणिनीय परम्परा में में इसे न्याय/परिभाषा के रूप में बताया नहीं है । चान्द्र परिभाषापाठ में यह न्याय 'विशेषविधिः सामान्यात्' स्वरूप में है। बनाया Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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