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________________ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ५३) भी बलवान् है । उदा. प्रेजुः प्रोपुः । यहाँ यज् और वप् धातु से परोक्षा का अन्यदर्थे बहुवचन का उस् प्रत्यय हुआ है । वे ही यज् और वप् धातु प्र उपसर्ग के साथ हैं, अत: 'प्र+यज्+ उस्' और 'प्र+वप +उस्' । यहाँ 'वृद् य्वृदाश्रयं च ॥' न्याय से यज् और वय् धातु के य और व का 'यजादि वचे: किति' ४/१/७९ से य्वृत् होगा और बाद में द्विर्धातुः परोक्षा डे.....' ४/१/१ से द्वित्व होगा। अत: 'प्र+इ+इज्+ उस्' और 'प्र+उ+ उप्+उस्' होगा । यहाँ एत्व और ओत्व पदद्वयापेक्षित है अतः वह बहिरङ्ग है किन्तु नित्य है जबकि 'समानानां तेन दीर्घः' १/२/१ से होनेवाली दीर्घविधि अन्तरङ्ग है किन्तु वह अनित्य है अतः, बलवन् नित्यमनित्यात्' ॥४१॥ से प्रथम एत्व, ओत्व होने की प्राप्ति है किन्तु यह न्याय होने से अनित्य ऐसे अन्तरङ्ग कार्यस्वरूप दीर्धविधि ही प्रथम होगी बाद में एत्व ओत्व होगा। इस न्याय का ज्ञापक 'आशी:' ३/३/१३ सूत्रगत 'आशी:' शब्द है । मूल शब्द आशिस् है। यहाँ 'दीर्घड्याब्व्यञ्जनात्सेः' १/४/४५ से सि प्रत्यय का लोप होगा और 'सो रुः' २/१/७२ से स् का रु होगा और उसी रु का विसर्ग होने की और पूर्व का, ई दीर्घ होने की प्राप्ति है, किन्तु यह न्याय होने से नित्य ऐसे विसर्ग का बाध करके पूर्वव्यवस्थित होने से अन्तरङ्ग ऐसी दीर्घविधि प्रथम होगी, बाद में विसर्ग होगा । यदि यह न्याय न होता तो पूर्व न्याय से विसर्ग ही प्रथम होता, और बाद में रेफ का अभाव होने से दीर्घविधि न होती तो 'आशी:' इस प्रकार का निर्देश असंभव ही होता । यह न्याय नित्य नहीं है क्योंकि अगला न्याय इस न्याय का बाध करता है। यहाँ 'आशी:' ज्ञापक में दीर्घविधि अन्तरङ्ग मानी है और विसर्गविधि बहिरङ्ग मानी है। दीर्घविधि पूर्व व्यवस्थित होने से अन्तरङ्ग है, ऐसा कहा किन्तु स्थानी, निमित्त इत्यादि द्वारा दीर्घविधि बहिरङ्ग है और विसर्गविधि अन्तरङ्ग है क्योंकि दीर्घविधि में स्थानी इ है और निमित्त पदान्तत्व ही है। अतः इस न्याय का यहाँ पर निर्देश युक्तिसंगत लगता नहीं है। इसका प्रत्युत्तर देते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि 'असिद्धं बहिरङ्गमन्तरड़े' न्याय की व्याख्या के समय अधिकापेक्षत्व से जो बहिरङ्ग है वह बहिरङ्ग नहीं कहा जाता है, यह सिद्ध किया ही है। अतः यहाँ जिस प्रकार से अन्तरङ्गत्व और बहिरङ्गत्व ग्रहण किया है वह सही है। वस्तुतः 'असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे' और 'अन्तरडं बहिरङ्गात्' इन दोनों न्याय से बहिरङ्ग से अन्तरङ्ग का प्राबल्य बता दिया है और वही न्याय भी नित्य से अन्तरङ्ग बलवान् होता है न्याय के बीजस्वरूप है, अतः यहाँ ज्ञापक की कोई आवश्यकता नहीं है, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी का मानना है । किन्तु इस न्याय में बहिरङ्गत्व गौण है, जबकि नित्यत्व मुख्य है । पूर्व न्याय से नित्य कार्य बलवान् हो जाता होने से इस न्याय की आवश्यकता है तथा उसका ज्ञापक 'आशी:' प्रयोग बताया वह उचित ही है । 'आशी:' में दीर्घविधि पर है किन्तु अनित्य है जबकि विसर्गविधि पूर्व है किन्तु नित्य है, अतः 'परानित्यम्' न्याय से प्रथम विसर्ग होने की प्राप्ति है और विसर्ग होने के बाद रेफ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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