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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) उससे ज्ञात होता है कि इन दोनों न्याय में लुक और लुब् दोनों लेने हैं केवल जहाँ लुक् बहिरङ्ग हो और अन्य कार्य अन्तरङ्ग हो वहाँ ही 'लुबन्तरङ्गेभ्यः' ॥४७॥ न्याय की प्रवृत्ति होती है किन्तु जहाँ लुप और अन्य कार्य दोनों अन्तरङ्ग या बहिरङ्ग हो वहाँ 'सर्वेभ्यो लोपः' ॥४८॥ न्याय की प्रवृत्ति होती है और ऐसी परिस्थिति में 'लोपात्स्वरादेशः' ॥४९॥ न्याय उसका बाधक बन सकता है अन्यथा नहीं।
श्रीलावण्यसूरिजी को भी यहाँ लोप शब्द से लुक् और लुप् दोनों का ग्रहण इष्ट है । उन्होनें तो इसके साथ इत्' संज्ञा से होनेवाले लोप का भी यहाँ ग्रहण किया है और श्रीहेमहंसगणि ने भी उसे भिन्न पद्धति से ग्रहण किया है।
पाणिनीय परंपरा में प्राचीन वैयाकरणों ने इस न्याय को ज्ञापकसिद्ध माना है किन्तु नागेश इत्यादि ने भाष्य में अनुक्त होने से ज्ञापकसिद्ध नहीं माना है।
हैम के पूर्ववर्ती जैनेन्द्र व चान्द्र परिभाषासंग्रह में इस न्याय को स्थान नहीं दिया गया है जबकि पाणिनीय परंपरा के शेषाद्रिनाथ सुधी की परिभाषावृत्ति में भी यह न्याय उपलब्ध नहीं है।
॥४९॥ लोपात्स्वरादेशः ॥ 'लोप' से स्वर का आदेश बलवान् होता है ।
इस न्याय में 'बलवान्' शब्द जोड़ देना और इस प्रकार अगले सात न्याय में भी 'बलवान्' शब्द जोडना ।
यहाँ भी 'लोप' शब्द से लुक् ग्रहण करना क्योंकि यह न्याय पूर्वन्याय का अपवाद है।
सर्व कार्य से लोप (लुक्) बलवान् होने पर भी, जहाँ स्वर का आदेश करना हो वहाँ, लोप से स्वर का आदेश बलवान् हो जाता है। उदा. 'श्री देवता अस्य' में 'देवता' ६/२/१०१ से अण होगा । यहाँ अण् णित् होने से 'वृद्धिः स्वरेष्वादेणिति तद्धिते' ७/४/१ से वृद्धि होने की संभावना है, किन्तु 'अवर्णेवर्णस्य' ७/४/६८ सूत्र पर होने से, उससे 'ई' का लुक् होगा किन्तु यह न्याय 'अवर्णेवर्णस्य' ७/४/६८ सूत्र का बाध करेगा और 'वृद्धिः स्वरेष्वादेणिति तद्धिते' ७/४/१ सूत्र से स्वर के आदेश रूप वृद्धि होकर 'श्रायं हवि:' प्रयोग सिद्ध होगा ।
___ वृद्धिः स्वरेष्वादेः' /७/४/१ से होनेवाली वृद्धि का, 'अवर्णेवर्णस्य' ७/४/६८ से पूर्वविधान किया है, वह इस न्याय का ज्ञापक है । वह इस प्रकार है । यदि यह न्याय न होता तो 'श्रायं' इत्यादि प्रयोग की सिद्धि के लिए प्रथम 'अवर्णेवर्णस्य' ७/४/६८ सूत्र का विधान किया होता । और बाद में वृद्धिः स्वरेष्वादे:- '७/४/१ सूत्र का विधान किया होता, अतः परत्व के कारण वृद्धि ही प्रथम होगी किन्तु ऐसा नहीं किया है वह इस न्याय के आशय से ही ।
इस न्याय का अनित्यत्व 'नानिष्टार्था शास्त्रप्रवृत्तिः ।' न्याय में कहा जायेगा।
१. पाणिनीय व्याकरण में लुप् और लुक् समानविषयक है। जहाँ स्थानिवद्भाव की आवश्यकता न हो वहाँ लोप किया
जाता है।
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