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________________ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ३४) समय, 'च्या' और 'ईच्' का अभेद-निर्देश किया है, वह इस न्याय का ज्ञापक है । यदि यह न्याय न होता तो 'ष्या' का 'ईच्' आदेश करते समय 'भिस ऐस' १/४/२ में जैसे भेद-निर्देश किया है, वैसे 'ष्याया ईच्' इस प्रकार भेद-निर्देश किया होता तो भी चल सकता, क्योंकि भेद-निर्देश करने पर भी 'च' कार अनुबन्ध के कारण 'ईच्' आदेश अनेक वर्णयुक्त माना जाता तो 'अनेकवर्णः सर्वस्य' ७/४/१०७ परिभाषा से समग्र ‘ष्या' का 'ईच्' आदेश हो जाता किन्तु 'षष्ठ्यान्त्यस्य' ७/ ४/१०६ परिभाषा से 'ष्या' के अन्त्य 'आ' का ही 'ईच्' आदेश नहीं हो सकता, किन्तु अनुबन्ध के कारण उत्पन्न अनेकवर्णत्व मान्य नहीं होने से 'ईच्' अनेकवर्ण वाला नहीं कहा जाता है, अतः 'ष्यायाः ईच्' रूप भेद-निर्देश करने पर 'षष्ठ्यान्त्यस्य' ७/४/१०६ से अन्त्य 'आ' का ही 'ईच्' आदेश होगा, वह इष्ट नहीं है, अतः संपूर्ण ‘ष्या' का 'ईच्' आदेश करने के लिए 'ष्या ईच्' इस प्रकार अभेद निर्देश करना अनिवार्य आवश्यक है । अतः वही अभेद निर्देश इस न्यायांश का ज्ञापक है। 'कारीषगन्धीपुत्रः' प्रयोग की संपूर्ण साधनिका/सिद्धि इस प्रकार है । करीष अर्थात् गाय का सुका हुआ गोबर या कंडा/उपला 'करीषस्येव गन्धो यस्य करीषगन्धिः ।' यहाँ 'करीष' और 'गन्ध' का 'उष्ट्रमुखादयः' ३/१/२३, से बहुव्रीहि समास होगा, बाद में 'ऐकार्थ्य' ३/२/८ से स्यादि प्रत्यय का लोप होने के बाद 'वोपमानात्' ७/३/१४७ से 'इ' समासान्त होकर करीषगन्धिः' समास होगा। (गोबर जैसी गन्ध जिस की है वह), इसी नाम के किसी पुरुष के पौत्रादि और वह भी स्त्रीलिङ्ग विशिष्ट हो तब 'करीषगन्धेर्वृद्धाऽपत्यं स्त्री चेत्' विग्रहवाक्य होगा और 'करीषगन्धिः' शब्द से 'वृद्धापत्य' अर्थ में 'ङसोऽपत्ये' ६/१/२८ से 'अण्' होगा । 'वृद्धिः स्वरेष्वादेः' ....७/४/१ से 'क' सम्बन्धित 'अ' की 'वृद्धि' होगी और 'अण' प्रत्यय पर में आने से 'अवर्णेवर्णस्य' ७/४/६८ से 'करीषगन्धि' के अन्त्य 'इ' का लोप होगा और 'अण्' प्रत्यय सम्बन्धि जो 'अ' 'कारीषगन्ध' शब्द के अन्त में आया है, उसका 'अनार्षे वृद्धेऽणिजो बहुस्वरगुरूपान्त्यस्याऽन्तस्य ष्यः' २/४/७८ सूत्र से 'ष्य' आदेश होगा, बाद में स्त्रीलिङ्ग में 'आत्' २/४/१८ से 'आप' प्रत्यय होने पर कारीषगन्ध्या' शब्द होगा और उसका पुत्र अर्थात् 'कारीषगन्ध्यायाः पुत्रः कारीषगन्धीपुत्रः' में ऊपर बताया उसी प्रकार 'ष्या' सम्बन्धित 'या' का 'ष्या पुत्रपत्योः केवलयोरीच् तत्पुरुषे' २/४/८३ से 'ई' होगा। 'असारुप्य' के विषय में यह न्याय अनित्य है । अत: 'पिता कृत्वा गतः' प्रयोग में 'पितृ' शब्द से 'ऋदुशनस्पुरुदंशोऽनेहसश्च सेर्डाः' १/४/८४ से जो 'सि' प्रत्यय का 'डा' किया है वह और 'द्वितीयाकृत्य क्षेत्रं गतः' प्रयोग में 'तीय' प्रत्ययान्त 'द्वितीय' शब्द से 'तीय-शम्ब बीजात् कृगाकृषौ डाच्' ७/२/१३५ से जो 'डाच्' हुआ है वह, दोनों अनुबन्ध के कारण असरूप ही माने गये हैं, अत एव 'पिता कृत्वा गतः' में 'डा' प्रत्ययान्त पिता शब्द को 'ऊर्याद्यनुकरणच्चिडाचश्च गतिः' ३/ १/२ से 'गति' संज्ञा नहीं होगी, इसलिए 'गतिक्वन्यस्तत्पुरुषः' ३/१/४२ से समास नहीं होगा और बिना समास पूर्वपद-उत्तरपद की व्यवस्था नहीं हो सकती है, अतः 'अनञः क्त्वो यप्' ३/२/१५४ से 'क्त्वा' प्रत्यय का यप् आदेश नहीं होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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