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________________ ९६ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) ज्ञापन होता है। यह बहुवचन 'क्य, क्यन्, क्यङ् ' और ' क्यङ्घ्' इत्यादि सर्व प्रकार के 'क्य' प्रत्ययों का ग्रहण करने के लिए रखा है। यदि यह न्याय न होता तो, 'जाति' की विवक्षा में एकवचन करने से भी सर्व 'क्य' का ग्रहण हो ही जाता, तो इसके लिए बहुवचन का प्रयोग क्यों करना चाहिए ? अर्थात् न करना चाहिए । तथापि बहुवचन का प्रयोग किया, वह इस न्याय की आशंका से ही किया है। यह न्याय अनित्य है, अतः 'आपो ङितां यै यास् यास् याम्' १/४/१७ सूत्र में केवल 'आप्' प्रत्ययान्त का ही ग्रहण किया है, तथापि 'डाप्' प्रत्ययान्त का भी ग्रहण होता है । यदि यह न्याय नित्य होता तो, सूत्र में केवल 'आप्' का ही विधान होने से, दो अनुबन्धयुक्त 'डाप्' का ग्रहण नहीं हो सकता, किन्तु 'आप्' प्रत्ययान्त 'माला' शब्द से जैसे 'मालायै, मालायाः, मालायाः, मालायाम्' रूप होते हैं, वैसे 'सीमन्' शब्द से जब 'ताभ्यां वाप् डित्' २/४/१५ से 'डाप्' होगा, तब 'सीमा' शब्द के भी 'सीमा, सीमायाः सीमायाः, सीमायाम्' रूप होते हैं और वे 'यै यास् यास् याम्' आदेश 'आपो ङितां यै यास्यास्याम्' १/४/१७ से ही होगा । श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि पाणिनीय परम्परा में यह न्याय ' तदनुबन्धग्रहणे नातदनुबन्धकस्य' रूप में पठित है । इस न्याय के ऐसे (हैम परम्परागत) स्वरूप के कारण जहाँ 'एकानुबन्ध' का ग्रहण हो वहाँ 'द्व्यनुबन्ध' का ग्रहण नहीं होता है, तथापि जहाँ 'द्व्यनुबन्ध' का ग्रहण हो वहाँ ' त्र्यनुबन्ध' के ग्रहण की निवृत्ति नहीं हो सकती है क्योंकि वह प्रस्तुत न्याय का विषय नहीं है । अतः 'क्यङ्' के ग्रहण से 'क्य' का भी ग्रहण होता है और 'यङ् यक्' तथा 'क्य' में 'एकानुबन्धकत्व' होने से अन्योन्य का ग्रहण करने की आपत्ति आती है । यद्यपि 'य' में भिन्न अनुबन्ध होने से कदाचित् उसका ग्रहण नहीं हो सकता है तथापि 'यक्' और 'क्य' में समान अनुबन्ध होने से दोनों के अन्योन्य ग्रहण को इस न्याय से दूर करना असंभव है, अतः इस न्याय के पाणिनीय परम्परागत स्वरूप को ग्रहण करना चाहिए, ऐसी श्रीलावण्यसूरिजी की मान्यता है । यह न्याय कातन्त्र की दुर्गसिंहकृत परिभाषावृत्ति, भावमिश्रकृत परिभाषावृत्ति, परिभाषापाठ व कालाप परिभाषापाठ में उपलब्ध नहीं है और व्याडि के परिभाषासूचन, परिभाषापाठ, शाकटायन, चान्द्र, जैनेन्द्र, भोज, तथा पाणिनीय परम्परा के पुरुषोत्तमदेवकृत परिभाषावृत्ति, सीरदेवकृत परिभाषावृत्ति, और हरिभास्करकृत परिभाषावृत्ति में 'एकानुबन्धग्रहणे न द्व्यनुबन्धकस्य ग्रहणम्' स्वरूप में ही यह न्याय दिया गया है । ॥३४॥ नानुबन्धकृतान्यसारूप्यानेकस्वरत्वानेकवर्णत्वानि ॥ 'अनुबन्ध' से हुआ असारूप्य (असमानता ), अनेकस्वरत्व और अनेकवर्णत्व मान्य नहीं है । असारूप्य अर्थात् परस्पर का असमानत्व/विरूपता/असदृशता, अनेकस्वरत्व और अनेकवर्णत्व, यदि अनुबन्ध द्वारा/ से/ के कारण, हो, तो वह व्याकरणशास्त्र में मान्य नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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