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________________ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) ॥ २४ ॥ क्वचिदुभयगतिः ॥ क्वचित्/कदाचित् 'कृत्रिम' और 'अकृत्रिम' दोनों का ग्रहण होता है। यह न्याय पूर्वन्याय का अपवाद है अर्थात् क्वचित्/कदाचित् 'कृत्रिम' और 'अकृत्रिम' दोनों का ग्रहण होता है । ‘गति' का अर्थ यहाँ 'ग्रहण' करना है। अतः जैसे 'बहुनाडि: कायः 'और 'बहुतन्त्री ग्रीवा' इत्यादि प्रयोग में, 'कृत्रिम' अर्थात् परिभाषानिष्पन्न 'स्वाङ्ग' से 'नाडीतन्त्रीभ्यां स्वाङ्गे' ७/३/१८० से 'कच्' प्रत्यय का निषेध हुआ है, वैसे अकृत्रिमस्वाङ्गवृत्ति', 'नाडी' और 'तन्त्री' शब्द से भी 'कच्' प्रत्यय का निषेध होने से बहुनाडिः स्तम्बः, बहुतन्त्री वीणा' प्रयोग भी होंगे। [यद्यपि लघुवृत्ति (सिद्धहेम ) में 'नाडीतन्त्रीभ्यां स्वाङ्गे' ७/३/१८० के उदाहरण में 'बहुनाडीक: स्तम्बः, बहुतन्त्रीका वीणा' प्रयोग बताये हैं तथापि बृहद्वृत्ति में स्पष्टता की गई है कि "अन्ये त्वाहुर्न पारिभाषिकं स्वाङ्गमिह गृह्यते किन्तु स्वमात्मीयमङ्गम् स्वाङ्गम् । आत्मा च इह अन्यपदार्थः तस्याङ्गमवयवस्तस्मिन्निति । तेषां बहुनाडिः स्तम्बः, बहुतन्त्री वीणा । ] यहाँ 'नाडी' और 'तन्त्री' दोनों प्राणिस्थ नहीं होने से दोनों में व्याकरण की परिभाषा से निष्पन्न कृत्रिम स्वाङ्गत्व' नहीं है, यहाँ किसी को ऐसी शंका हो सकती है कि 'नाडी' को 'अप्राणिस्थ' बताया यह उचित नहीं है क्योंकि 'स्तम्ब' दारु / लकड़ी से निष्पन्न है और वृक्ष-दारु लकड़ी एकेन्द्रिय प्राणि ही है । उसके प्रत्युत्तर में श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि व्याकरण में 'प्राणि' शब्द से त्रस जीवों का ही ग्रहण होता है किन्तु स्थावर जीवों का ग्रहण नहीं होता है, क्योंकि यदि 'प्राणि' शब्द से स्थावर-एकेन्द्रिय का ग्रहण होता तो 'प्राण्यौषधिवृक्षेभ्योऽवयवे च' ६/२/३१ सूत्र में 'प्राणि' शब्द से ही 'औषधि' और 'वृक्ष' का ग्रहण हो जाता था, किन्तु ऐसा होता नहीं है । अतः 'प्राणि' शब्द के साथ-साथ 'औषधि' और 'वृक्ष' शब्दों का भी पृथग्ग्रहण किया है । 'कृत्रिमाकृत्रिमयोः कृत्रिमे' ॥२३ ॥ न्याय होने पर भी कहीं-कहीं दोनों प्रकार के प्रयोग देखने को मिलते हैं, इससे ज्ञापित होता है कि 'क्वचिदुभयगतिः' । न्याय है । अत एव ऐसे दोनों प्रकार के प्रयोग ही इस न्याय के ज्ञापक हैं। आगे भी जहाँ 'तथाप्रयोगदर्शन' को ज्ञापक माना हो वहाँ इस प्रकार से समझ लेना। यह न्याय और पूर्व का न्याय, दोनों अनित्य हैं क्योंकि कहीं-कहीं 'कृत्रिम' और 'अकृत्रिम' में से केवल 'अकृत्रिम' का ही ग्रहण, देखने को मिलता है । उदा. 'शिरोऽधसः पदे समासैक्ये' २/ ३/४ यहाँ पारिभाषिक 'तदन्तं पदम्' १/१/२० से निष्पन्न 'पद' को छोड़कर केवल 'पद' शब्द को ही ग्रहण किया है । अतः 'शिरस्पदम्, अधस्पदम्' में 'शिरोऽधसः पदे'....२/३/४ से 'र' का 'स्' होगा। इस न्याय का कार्यक्षेत्र प्रदेश बताते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि जहाँ 'प्रकरण' से 'कृत्रिम' या 'अकृत्रिम' दो में से किसका ग्रहण किया जाय ? इसका निश्चय न हो, वहाँ तथा जहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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