SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) 'कृत्रिम ' तथा 'अकृत्रिम, दोनों का ग्रहण संभव हो तो कृत्रिम / परिभाषा निष्पन्न का ग्रहण करना । ७४ पूर्वन्याय से 'अकृत्रिम' का ही ग्रहण होता था क्योंकि वह मुख्य है । यह न्याय उसका अपवाद है । उदा. 'असहनञ्विद्यमानपूर्वपदात् स्वाङ्गादक्रोडादिभ्यः ' २/४/३८ में कथित 'स्वाङ्ग' शब्द से, व्याकरण की परिभाषा से निष्पन्न 'स्वाङ्ग' लेना अर्थात् व्याकरण में बतायी हुई व्याख्यानुसारलक्षणयुक्त 'स्वाङ्ग' का ग्रहण करना किन्तु लौकिक / लोकप्रसिद्ध 'स्वाङ्ग' का ग्रहण नहीं करना चाहिए । व्याकरण में 'स्वाङ्ग' शब्द की व्याख्या इस प्रकार दी गई है । "अविकारोऽद्रवं मूर्त्तं प्राणिस्थं स्वाङ्गमुच्यते । "1 च्युतं च प्राणिनस्तत्तन्निभं च प्रतिमादिषु ॥' 'उपर्युक्त व्याख्यानुसार जो 'स्वाङ्ग' है उसका यहाँ ग्रहण करना, किन्तु 'स्वमङ्गमवयवं स्वाङ्गम्' रूप यौगिक, अकृत्रिम स्वाङ्ग का ग्रहण नहीं करना चाहिए । अतः 'दीर्घमुखा शाला' में ' मुख' शब्द में 'शाला' की अपेक्षा से, लोकप्रसिद्ध 'स्वाङ्गत्व' होने पर भी, वह 'प्राणिस्थ' नहीं होने से 'पारिभाषिक स्वाङ्गत्व' का अभाव होने से 'असहनञ्विद्यमानपूर्वपदात्...' २/४/३८ से 'ङी' प्रत्यय नहीं होगा । 'आङ्गो यमहनः स्वेऽङ्गे च' ३/३/८६ सूत्रगत 'स्व' और 'अङ्ग' शब्द का व्यस्ताभिधान अर्थात् भिन्न-भिन्न कथन, इस न्याय का ज्ञापक है। यदि उसका 'व्यस्त कथन न किया होता और 'स्वाङ्गे' रूप में समस्ताभिधान किया होता तो 'आयच्छति पादौ मैत्रस्य ' इत्यादि प्रयोग में ' अविकारो ऽद्रवं....' इत्यादि लक्षणयुक्त 'स्वाङ्ग' होने से, इस न्याय के कारण आत्मनेपद हो जाता, किन्तु व्यस्ताभिधान करने से परिभाषानिष्पन्न के कारण 'स्वाङ्ग' होने पर भी अपने ही अवयव रूप स्वाङ्ग AIT अभाव होने से आत्मनपद नहीं हुआ है । अतः इस न्याय की आशंका से ही 'स्वेऽङ्गे' के रूप में व्यस्ताभिधान किया है । इस न्याय की अनित्यता अगले न्याय में बतायी जायेगी । यहाँ श्रीहेमहंसगणि इस न्याय को 'गौणमुख्योर्मुख्ये कार्यसम्प्रत्ययः ' न्याय का अपवाद मानते हैं, किन्तु श्रीलावण्यसूरिजी ने पाणिनीय परम्परा की गौण मुख्य की व्याख्या का स्वीकार किया है । अतः उसके अनुसार चर्चा करके उन्होंने बताया है कि 'कृत्रिम' अर्थात् परिभाषानिष्पन्न होने से वह उपाधियुक्त है, अत: वह गौण है और 'अकृत्रिम ' स्वाभाविक है, अत: 'मुख्य' है । इस लिए पूर्वन्याय का यह अपवाद है, ऐसा श्रीहेमहंसगणि का कथन सही / यथार्थ नहीं है । 'गुणप्रयुक्तं' या 'गुणादागतं गौणत्वं' व्याख्यानुसार यहाँ 'कृत्रिम' में 'गौणत्व है नहीं, क्योंकि उसके / किसी गुण के आधार पर, उसका व्यवहार नहीं होता है । अतः यहाँ 'स्वाङ्ग' शब्द में गुणप्रयुक्तत्व नहीं है, किन्तु विशेष अर्थ में वह परिभाषित है और वह केवल अपने शास्त्र की प्रक्रिया के निर्वाह के लिए है तथा अप्रसिद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy