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________________ ६९. प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. २२) की 'प्रतिष्ठा' क्रिया और 'कठकौथुमम्' की 'उदय' क्रिया का किसी मनुष्य द्वारा अनुवाद हुआ है और दोनों धातु अद्यतनी में है, अतः उनका द्वन्द्व समास, समाहार द्वन्द्व होगा, अत एव उससे नपुंसकलिङ्ग और एकवचन होगा । किन्तु, 'कठ, कोथुम, कालाप' आदि कर्ता के रूप में न होकर करण आदि के रूप में हो या विवक्षा की गई हो तो समाहार द्वन्द्व नहीं होता है। उदा. 'प्रत्यष्ठात् कठकालापाभ्यां कश्चित्' इस प्रकार यहाँ 'स्था' और 'इण्' धातु के कर्ता के रूप में नहीं किन्तु करण के रूप में 'चरण' आदि संभव है, क्योंकि सम्बन्धहेतुयुक्त कारक की संख्या छः है, तथापि 'चरणस्य स्थेणो'.....३/१/१३८ सूत्र की व्याख्या में कहा है कि 'कर्तृत्वेन सम्बन्धिनो ये चरणाः', ऐसा, स्वतन्त्रता के कारण कर्ता की मुख्यता होने से, इस न्याय का स्वीकार करके कहा गया है। यद्यपि कर्तृत्व के सम्बन्ध से भी कर्ता-गौण और मुख्य-दो प्रकार से है, अतः जब कर्ता मुख्य हो और 'स्था' या 'इण्' धातु से सम्बन्धित हो, तो समाहार द्वन्द्व होता है, किन्तु कर्ता कर्त्तत्वयुक्त होने पर भी यदि वह गौण हो तो वहाँ 'गौणमख्ययोः'-न्याय से समाहार द्वन्द्र नहीं होगा। अर्थात् जब भावे प्रयोग हो तब समाहार द्वन्द्व नहीं होता है। उदा. 'प्रत्यष्ठायि कठकालापाभ्याम् ।' यहा 'चरण' का कर्तृत्व द्वारा 'स्था' धातु के साथ सम्बन्ध होने पर भी, 'भाव' का प्राधान्य होने से समाहार द्वन्द्व नहीं होता है। 'चरणस्य स्थेणो'....३/१/१३८ सूत्र में सामान्य से किया गया कथन ही इस न्याय का ज्ञापक है । वह इस प्रकार-: यहाँ स्था' और 'इण्' धातु के मुख्य कर्ता, 'चरण' आदि के लिए सूत्र में 'स्थेणोर्मुख्यकर्तुः' कहना चाहिए, किन्तु ऐसा स्पष्ट कथन नहीं किया है, उससे सूचित होता है कि सामान्य से कथन करने पर भी, प्रस्तुत न्याय के बल से 'चरण' आदि के कर्तृत्व में मुख्यता प्राप्त होगी ही, इस आशय से ही सामान्यतया कथन किया है। यह न्याय अनित्य है । अत एव 'धातोरिवर्णोवर्णस्येयुव...'...२/१/५० सूत्र से, जिस प्रकार 'शिश्रियुः, लुलुवुः' आदि में धातु के 'इवर्ण' और 'उवर्ण' का 'इय्' 'उव्' आदेश हुआ है, वैसे 'नियौ, लुवौ' आदि में भी, इवर्ण और उवर्ण धातु सम्बन्धित होने पर भी, वे 'क्विप्' प्रत्ययान्त होने से, मुख्य नहीं, किन्तु गौण हैं, तथापि 'धातोरिवर्णोवर्णस्ये-'२/१/५० से 'इय्, उव्' आदेश होता है। 'स्यादौ वः' २/१/५७ सूत्र से प्रस्तुत न्याय की अनित्यता का ज्ञापन होता है । वह इस प्रकार-: 'वसु इच्छतः (क्यनि) = वसूयतः। वसूयतः इति क्विप् ।' 'वसु' शब्द को इच्छा अर्थ में क्यन् प्रत्यय 'अमाऽव्यात् क्यन् च' ३/४/२३ सूत्र से होगा, बाद में उससे 'क्विप्' होने पर, 'अतः' ४/३/८२ से 'वसूय' धातु के 'य' के 'अ'का लोप होगा, उसके बाद 'योऽशिति' ४/३/८० से 'य' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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