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प्रथम वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. २१ )
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ही नहीं । अतः 'येन नाव्यवधानं, तेन व्यवहितेऽपि भवति' न्याय से, एक वर्ण के व्यवधान में भी प्रवृत्ति होती है । अतः एक ही वर्ण के व्यवधान के कारण परनिमित्तक आदेश का अभाव नहीं होता है, अतः स्थानिवद्भाव हो सकता है । दूसरी बात यह कि 'सप्तम्या पूर्वस्य' ७/४/१०५ और 'स्वरस्य परे प्राग्विधौ ७/४/११०, दोनों परिभाषा सूत्र हैं । परिभाषा सूत्र, अन्य सूत्र प्रति अनुक्त अर्थ की पूर्ति द्वारा गुण करते हैं, अतः इसमें गुणत्व आयेगा तथा गुणों के बीच परस्पर सम्बन्ध नहीं हो सकता है, क्योंकि दोनों समान हैं। जैसे राजा और सेवक के बीच स्वामी / सेव्य-सेवकभाव सम्बन्ध होता है, किन्तु एक ही राजा के सेवकों मे परस्पर सेव्य सेवक भाव नहीं होता है, क्योंकि उनका सेवकभाव केवल राजा के प्रति ही है, ठीक उसी तरह परिभाषा सूत्र, व्याकरणशास्त्र को उपकारक है, उन्हीं परिभाषा सूत्रों को परस्पर उपकार्य-उपकारकभाव का सम्बन्ध नहीं हो सकता है, अतः 'स्वरस्य परे प्राग्विधौ ' ७/४/११० में, सप्तम्या पूर्वस्य ७/४/१०५ की उपस्थिति करना उचित नहीं है ।
श्रीहेमहंसगणि दूसरी बात यह कहते हैं कि शायद स्थानिवद्भाव होता है, ऐसा मान लें, तथापि 'अस्वे' से होनेवाला कार्य 'नञ्' निर्दिष्ट है और 'ननिर्दिष्ट कार्य 'अनित्य है, अतः यहाँ 'स्व'( सवर्ण) संज्ञक स्वर पर में आने पर भी, पूर्व के 'इ' का 'इय्' होगा ।
समाधान / प्रत्युतर भी श्रीलावण्यसूरिजी को मान्य नहीं है क्योंकि यहाँ 'ननिर्दिष्ट' कार्य अनित्यत्व का कोई प्रमाण / सबूत नहीं है। बल्कि निषेध ही बलवान् होता है। उसी न्याय से यहाँ 'अस्वे' ही उचित है । यदि इसी तरह 'ननिर्दिष्ट' के अनित्यत्व का स्वीकार करेंगे तो 'ईषतुः, ईषुः ' आदि में समानदीर्घ का बाध होकर 'इय्' आदेश होने की आपत्ति आयेगी । अतः यहाँ 'स्व' संज्ञक स्वर पर में आने पर भी 'इ' का 'इय्' आदेश होगा, ऐसा कहना युक्तियुक्त नहीं है ।
तीसरा समाधान देते हुए श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि 'पर्जन्यवल्लक्षणप्रवृत्ति: ' न्याय से जहाँ भी 'अस्व' स्वर आयेगा, वहाँ 'पूर्वस्यास्वे स्वरे'.....४/१/३७ से 'इ' का 'इय्' आदेश होगा ही, स्थानिवद्भाव करने पर भी होगा । यहाँ ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए कि स्थानिवद्भाव करने से आदेश स्थानिरूप हो जायेगा, अतः 'अस्व' स्वर का निमित्त नहीं मिलने से 'इय्', 'उव्' कैसे होगा ? क्योंकि स्थानिवद्भाव करने से स्थानिवत् कार्य ही होता है, किन्तु आदेश स्थानिरूप नहीं होता है, और वत् करने का केवल यही प्रयोजन है, अतः 'इ' का 'इय्' आदेश होगा ।
यहाँ श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि प्रथम ननिर्दिष्ट' कार्य की अनित्यता दिखाना और बाद में कहना कि "स्थानिवद्भाव करने से आदेश स्थानि रूप हो जाने से, 'अस्व' स्वर का निमित्त नहीं मिलने से 'इय्, उव्' आदेश कैसे होंगे ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए ।" वह उचित नहीं है । स्थानिवद्भाव करने से आदेश स्थानिरूप नहीं होता है, किन्तु स्थानि के कारण होनेवाला कार्य ही होता है । यह समाधान भी विचारणीय है, क्योंकि स्थानिवद्भाव से 'स्थानि' के कार्य का अतिदेश होता है और आदेश निमित्तक कार्य का अभाव होता है, अतः आदेश का रूप होने पर भी इसका कोई फल नहीं है । इस प्रकार यह समाधान भी सही प्रतीत नहीं होता है ।
अन्त में 'स्थानिवद्भाव-पुम्वद्भाव.....' न्याय से, स्थानिवद्भाव अनित्य होने से, यहाँ
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