________________
गंधबंधु कहा
तच्चितं संपज्जइ सव्वं पि ठियाण गुरुसमीवम्मि । लवणं पि संचिताए भविही भिन्नट्ठियाण पुणो ॥ ८९३० ॥ कस्सइ पुन्नेण इमा लच्छी उल्लसइ नज्जइ न एयं । ता का नाम कुबुद्धी तुम्हाणं भवह जं भिन्ना ॥। ८९३१ ॥ इय तीयुक्तो जंपइ तुच्छमई तं न पेच्छसि किमेयं । अहमेगागी एयं गरुयकुंडंबं सिरी जाइ ॥ ८९३२ ।। ईय जंपिय सेट्ठिसयासओ सिरिं विभइउं ठिओ भिन्नो । कारावियं च गरुयं ति भूमियं तेण धवलहरं ।। ८९३३ || पारद्धो ववहरिडं जलथलमग्गेसु भूरिदविणेण । वुड्ढि निमित्तं दितो दव्वं पडयाइ वि न लेइ ॥ ८९३४ ॥ तुरयारूढो माऊरछत्तअंतरियतरणिसंतावो ।
हिंडइ वणिउत्तव्वूहवेढिओ रम्मसिंगारो ॥। ८९३५ ॥
नो सयणाण न मित्ताण नेव लिंगीण जायगाण वि नो । वियरइ कस्सइ किं पि हु दिंति दईयं पि वारेइ ।। ८९३६ ॥ कूडव्ववहारेहिं हत्थं चिय वच्छ ! गच्छिही लच्छी । इय सेट्ठिए उत्तो भाइ ताय ! सगिहं विचिंतेसु || ८९३७ ॥ गहिय धणाओ लोगो वि किंपि से देइ सेट्ठिलज्जाए । "दूरे गुरुण आणा तेसिं लज्जा वि सिरिजणणी" ।। ८९३८ ॥ देव्ववसेणं कालक्कमेण पंचत्तमुवगओ सेट्ठी । पच्छा सो निस्संको अहिययरे कुणइ ववहारे ॥। ८९३९ ॥ अह तस्स असुहवसओ सिरी समग्गा वि नासिउं लग्गा । मग्गिज्जंतो लोगो दुव्वयणे देइ नो दव्वं ॥ ८९४० ॥ देसंतरेसु विठिया वणिउत्ता जायभूरिधणलाहा । दिट्ठा विलोहिउमलं लच्छी किं नो सहत्थगया ।। ८९४१ ॥ सो निक्खिणिही नूणं दाहिइ न कयाइ इमं सुता । इय भीय व्व सिरी भिन्नपवहणा सायरे मग्गा || ८९४२ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
६९५
www.jainelibrary.org