________________
कुमरणु .........
.
.
.
.
.
.
.
.
.
५३२
सिरिअणंतजिणचरियं परिहाविउं कुमारं कच्छोट्टयमेत्तकोवीणं ॥ ६८२५ ॥ एगे भणंति मारह एयं अन्ने उ बिंति मुयह त्ति । जंपति के वि बंदिवरह जहा देइ दव्वं ति ॥ ६८२६ ॥ कुमरेणु
................ या तुब्भेहिं मह तणया ॥ ६८२७ ॥ तो चउपासट्ठियकालनाहलावेढीओ कणयगोरो । मेरु व असियगिरीहिं सेविज्जंतो सहइ कुमरो ॥ ६८२८ ॥ विघडदुरारोहमहासेलग्गठियाए अट्ठिसालाए । पंचाणणो व्व नेउं पल्लीए गुहागिहे धरिओ ॥ ६८२९ ॥ परिभावइ एत्तिय वच्छराइं जह सुहपरंपरा जाया । तं मच्छरिणि व्व तहा दुहरिंछोली वि मह होही ॥ ६८३० ॥ कहमन्नहासमसिरिन्भंसो हरिपरिभवो हयविणासो । सप्पागमणं नाहलकयत्थणं समगमवि पत्तं ॥ ६८३१ ॥ नूणं न पुव्वजम्मे निरंतराओ कओ मए धम्मो । उवरुवरि जेण उल्लसइ मह महणत्थपत्थारी ॥ ६८३२ ॥ जं किंचि पावमिममुदयमागयं तद्दुहं इमं कुसुमं । होही नूणं मह नरयनिवडणुक्कडदुहेण फलं ॥ ६८३३ ॥ जे न समज्जियसुकया ते नूण न भोयभायणं हुंति । संपत्तजयुत्तमरिद्धिवित्थरा वि हु जओ भणियं ॥ ६८३४ ॥ “उवभुंजिउं न पावइ रिद्धिं पत्तं पि पुन्नपरिहीणो । विउलं पि जलं तिसिओ वि मंडलो लिहइ जीहाए ॥ ६८३५ ॥ "जेत्तियमेत्ते जेणं लब्भंसो लहइ तित्तियं चेव ।। लच्छी पडहत्थे वि हु भुवणम्मि सया जमुत्तं च ॥ ६८३६ ॥ “जो जत्तियस्स अत्थस्स भायणं सो वि हु तत्तियं लहइ । वुढे वि दोणमेहे न डुंगरे पाणियं ठाइ " || ६८३७ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org