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छंद चर्चा ।
पा. च. में कुल ९ पंक्तियां अपूर्ण हैं। वे हैं-६.१०.७; ६.१०.८; ७.९.१२, ७.१०.४, ७.१०.१० १३.६.२; १४.२१.७ तथा १६.९.८ । इनमें से पंक्ति ७.१०.१० को छोडकर शेष का उत्तरार्ध नहीं हैं। इन पंक्तियों के अपूर्ण होने से अर्थ की कोई विशेष हानि नहीं हुई है । इस प्रकार का दोष इन्ही प्राचीन प्रतियों का हो सो बात नहीं है । अन्य प्राचीन प्रतियों में भी यह पाया जाता है। णायकुमारचरिउ में भी इस प्रकार ५ पंक्तियाँ अधूरी हैं। इसके कारण की ऊहापोह में णायकुमारचरिउ के विद्वान संपादक श्रद्धेय डा. जैन ने कहा है कि यह संभव है कि ये पंक्तियां लेखक द्वारा ही असावधानी से छूट गई हो (दे. णायकुमारचरिउ भूमिका पृ. ७२ )। (४) कडवक का अन्त्य भाग:
(अ) प्राचीन प्रतियों में इसे घत्ता नाम दिया है । प्रत्येक संधि के प्रारम्भ में उस संधि में प्रयुक्त घत्ताओं के प्रायः समान ही एक छंद प्रयुक्त किया गया है जिसे प्राचीन प्रतियों में ध्रुवकं कहा है । इसका कडवक से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसमें पूरी संधि का सार संक्षेप मात्र रहता है। चूंकि यह घत्ता के प्रकार का होता है अतः विवेचन के लिये उसका समावेश घत्ताओं में ही किया है। इन दोनों छंदों के नाम के बारे में भिन्न छंदशास्त्रकर्ता एकमत नहीं है। स्वयंभू के अनुसार जो संधि के प्रारम्भ में बारंबार गाया जाए वह ध्रुवा तथा जो कडवक के अन्त में आए वह पत्ता कहलाता है । हेमचन्द्र के अनुसार उन दोनों का नाम घत्ता है तथा उन्हे ध्रुवा या ध्रुवक भी कहा जा सकता है- ' सन्ध्यादौ कडवकान्ते च ध्रुवं स्यादिति ध्रुवं ध्रुवकं घत्ता वा- (छं. शा. ३८ अ १२) कविदर्पण का टीकाकार हेमचन्द्र से सहमत है। इन छंदशास्त्रियों ने कडवक के अन्त में प्रयुक्त छंद का नाम छद्दनिका भी स्वीकार किया है किंतु हेमचन्द्र तथा कविदर्पण के टीकाकार ने कडवक के अन्त में प्रयुक्त द्विपदी को छडुनिका नाम देना स्वीकार नहीं किया-“चतुष्पद्येन छनिका न द्विपदी"- (क. द. २.३१ की टीका)।
___ कडवक के अंत में घत्ता के रूप में किस छंद का उपयोग किया जाए इस बारे में किसी छंद ग्रन्थ में कोई बंधन नहीं है किन्तु छंदों के किस वर्ग का उपयोग किया जाए इस विषय में सभी ग्रन्थों में कुछ कहा गया है। स्वयंभू के अनुसार कडवक के अन्त में छडुनिका का प्रयोग किया जाना चाहिए । स्वयंभू ने छडुनिका के सात भेद बताएं हैं जिनमें तीन षट्पदी हैं और चार चतुष्पदी। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि स्वयंभू को कडवक के अंत में केवल इन्हीं दो वर्गों का उपयोग अभीष्ट था। हेमचन्द्र के इन शब्दों से- सा त्रेधा षट्पदी, चतुष्पदी द्विपदी च ( छ. शा. ३८ अ १३) स्पष्ट है कि वे कडवक के अन्त में द्विपदी का उपयोग भी उचित मानते थे । कविदर्पणसार ने इन शब्दों सेबहुविधा पत्ता नाम षट्पदी वक्ष्यमाणस्य संधेर्मुखे कडवकस्य त्वन्ते ध्रुवमियं कार्या" प्रतीत होता है मानों वे कडवक के अन्त में केवल षट्पदी के उपयोग के पक्ष में हों । इस सम्बन्ध में हमें पत्ता नामक छंद के नाम से कुछ अनुमान का आधार मिलता है। घत्ता चौसट मात्राओं वाला एक षट्पदी छंद है। चूंकि इस षट्पदी छंद का कडवक के अन्त में बहुधा उपयोग होता था अतः इस छंद का नाम ही घत्ता पड़ गया। यह षट्पदी छंद तो पुराना है क्योंकि स्वयंभू छंद में इसे छनिका का एक भेद कहा है किंतु इसका यह नाम प्रा. मैं (१.९९, १००) में ही प्रथम बार प्रयुक्त है। इससे हम यही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि अपभ्रंश काव्य के प्रारंभिक युग में इस छंद का उपयोग पत्ता के रूप में सामान्य रूप से होता था किंतु कालान्तर में उसका अधिकाधिक उपयोग किया जाने लगा। इस विवेचन से हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि पत्ता के लिए तीनों वर्गों के छंद के उपयोग की स्वतन्त्रता थी।
हेमचन्द्र ने अपभ्रंश छन्दों को द्विपदी, चतुष्पदी तथा षट्पदी वर्गों में तो विभाजित किया, पर उस विभाजन के
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