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________________ विश्वका स्वरूप। स्थिति तिलोयपण्णत्ति के अनुसार बताई गई है। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि तिलोयपण्गत्ति तथा राजवार्तिक टीका में नक्षत्र, बुध, शुक्र, बृहस्पति तथा मंगल की चित्रा पृथिवी से जो दूरी बतलाई गई है वह दोनों ग्रन्थों में समान नहीं है । संभवतः इसी कारण से पद्मकीर्ति ने पा. च. में इस दूरी का उल्लेख नहीं किया है। (२) ज्योतिष्कों की आयु के विवरण में पा. च. में कथन किया गया है कि जीव (बृहस्पति ) की आयु सौ वर्ष अधिक एक पल्य तथा शेष ज्योतिष्कों की आयु एक पल्य होती है।' इस कथन के पूर्व पा. च. में चन्द्र और सूर्य की आयु बताई गई है अतः शेष से आशय शुक्र, बुध आदि का है । तात्पर्य यह कि शुक्र, बुध आदि की आयु एक पत्य होती है । तिलोयपण्णैत्ति में शुक्र की आयु सौ वर्ष अधिक एक पल्य, बृहस्पति की एक पन्य तथा सूर्य चन्द्र को छोड शेष अर्थात् मंगल, बुध, आदि की आधापल्य बताई गई है। (३) पा. च. में प्रत्येक द्वीप-समुद्र में वर्तमान सूर्य और चन्द्रों की संख्या के निर्देश के प्रसंग में बताया गया है कि धातकी खंड में बारह सूर्य तथा बारह चन्द्र हैं तथा अगले अगले द्वीप-समुद्रों में सूर्य-चन्द्रों की संख्या दुगुनी दुगुनी होती गई है। इस कथन के अनुसार कालोद समुद्र में २४ सूर्य तथा २४ चन्द्र तथा पुष्करवर द्वीप में ४८ सूर्य तथा ४८ चन्द्र का अनुमान होता है किन्तु तिलोयपण्णत्ति के अनुसार इन दो द्वीप-समुद्रों में क्रमश: ४२ चन्द्र और उतने ही सूर्य तथा ७२ चन्द्र तथा उतने ही सूर्य चमकते है तथा आगे आगे के द्वीप-समुद्रों में इनकी संख्या दुगुनी दुगुनी होती गई है। (४) पा. च में नेमिनाथ के तीर्थ की अवधि तेरासी हजार सातसौ पचास वर्ष बताई गई है। तिलोयपण्णति में यह अवधि चौरासी हजार छह सौ पचास वर्ष कही गई है। यहां ध्यान देने योग्य है कि पद्मचरित में नेमिनाथ के तीर्थ की वही अवधि बताई गई जो पा. च. में। (५) पा. च में नौ प्रतिवासुदेवों में से सातवें का नाम पल्हाउ (प्रल्हाद ) बताया है। तिलोयपण्यत्ति के अनुसार सातवें प्रतिवासुदेव का नाम प्रहरण है। पद्मकीर्ति ने सातवें प्रतिवासुदेव का नाम विमलसूरि केपउमचरिय" के अनुसरण करते हुए दिया है। (६) जम्बूद्वीप के क्षेत्रो और पर्वतों का क्रमवार उल्लेख करते समय प्रस्तुत ग्रन्थ में नीलगिरि के उत्तर में 'पोएमवरिस' क्षेत्र के स्थित होने का निर्देश किया है।" नीलगिरि तथा रुक्मि पर्वत के बीच जो क्षेत्र स्थित है उसका नाम तिलोयपण्णत्ति तथा तत्त्वार्थसूत्र में रुक्मि-क्षेत्र कहा गया है। पोएमवरिस नामके क्षेत्र का अन्य किसी ग्रन्थ में उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ। सामाजिक रूपरेखा : मुनि पद्मकीर्ति को अपने ग्रन्थ में धार्मिक चर्चा तथा मुनियों के आचार विचार की चर्चा ही अभीष्ट प्रतीत होती है फलतः पा. च. में सामाजिक व्यवस्थाओं का स्वरूप सामने बहुत कम आया है । राजा और राज्य के वर्णन-प्रसंगो में ही इन व्यवस्थाओं का स्वरूप कुछ कुछ उभरा है । जिस समाज का चित्रण ग्रन्थ में हुआ है, ज्ञात, होता है, उसमें बच्चों को नाना प्रकार के आभूषण पहनाने के प्रथा थी। कानों में कुण्डल, गले में हार, करों में कंकण, और कटि में कटिसूत्र पहनाए जाते थे। साथ ही बच्चों के ललाट पर तिलक लगाने तथा शिरपर पुष्पमाला बांधने की प्रथा थी । स्त्रियां प्रातःकाल १. पा. च. १६. ७. ९ से ११. २. .७. ६११, ६१५. ३. पा. च. १६. १६. ५, ६. ४. ति. पं. ७. ५५०, ५५१. ५.पा. च. १७. १७.३. ६. ति. प. ४. ५७६ । ७. पद्म. च. २०. ९०.८. पा.च. १७.२२. ५.९. ति. प. ११९.१०.प. च. ५. १५६. ११. पा. च. १६. ११. ८. १२. सू. ३. १.. १३. पा. च. ८. २२. १-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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