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________________ सम्यक्त्व। सीधी व्याख्या न कर उसके स्थान में सम्यक्त्वधारी के स्वरूप को स्पष्ट कर अप्रस्तुतरूप से सम्यक्त्व के स्वरूप को समझाने का प्रयत्न किया है। ग्रन्थकार के अनुसार सम्यक्त्वधारी वह व्यक्ति है जो प्रतिदिन अरहंतदेव को नमस्कार कर उसका मनन करता है।' सिद्धान्त की दृष्टि से यह व्याख्या सदोष कही जा सकती है पर वह अत्यन्त व्यवहारिक है । अन्य धर्मों में इस विश्व के कर्ता के रूप में ईश्वर की कल्पना कर उस ईश्वर को प्रणाम और उसे मनन करने का उपदेश दिया गया है। जैनधर्म में ईश्वर के इस रूप की मान्यता नहीं किन्तु उसमें महान् आत्माओं को जिन्होंने अपने ज्ञान और संयम से . परमात्मत्व प्राप्त कर लिया है, प्रणाम करने की मान्यता है। इसके स्मरण से संसारी जीव एक प्रवित्रता और उच्चता का अनुभव करते हैं जो उन्हें शुद्धज्ञान की प्राप्ति में सहायक होते हैं। अर्हदेव ऐसी ही परमात्मत्व को प्राप्त आत्माएं हैं। इनको नमस्कार करना भक्ति है। ग्रन्थकारने इन्हें नमस्कार करना सम्यक्त्वधारी का लक्षण बताकर सम्यक्त्व को भक्ति की भित्ति पर आश्रित किया है। यथार्थतः पद्मकीर्तिने जिनभगवान की भक्ति पर ही जोर दिया है और उसे ही समग्र सुखों की प्राप्ति का साधन माना हैं। जिस स्थिति में पद्मकीर्तिने सम्यक्त्वधारीकी यह व्याख्या की उसमें यह आवश्यक भी है। यह व्याख्या एक जैनमुनि द्वारा एक सार्थवाह को उपदश देने के प्रसङ्ग में की गई है। यदि इस स्थिति में एक मुनि सार्थवाह को जो संभवतः अजैन है, सम्यक्त्व या सम्यक्त्वधारी की सैद्धान्तिक व्याख्या से अवगत करानेका प्रयास करता हैं तो अधिक संभावना इसीकी है कि वह उसकी जटिलता का अनुभव कर जैनधर्म की ओर आकृष्ट होने के स्थान में उससे पराङ्मुख हो जायगा । अतः इस स्थिति में सम्यक्त्व की सर्वसाधारण ओर व्यवहारिक व्याख्या करना ही श्रेयस्कर है। किन्तु ग्रन्थकारने सम्यक्त्व की परंपरागत और सैद्धान्तिक व्याख्या की उपेक्षा नहीं की । सम्यक्त्वधारी की उक्त व्याख्या के पश्चात ही उसने सम्यक्त्वराग की व्याख्या की है जिसके अनुसार जीवाजीव के सिद्धान्त में श्रदा रखना सम्यक्त्वराग है । राग का ति होता है। देवादिविषयक रति भक्ति कही जाती है। अतः सम्यक्त्वराग से आशय सम्यक्त्वके प्रति भक्ति भाव का है। अतः इस व्याख्या के साथ भी ग्रन्थकारने भक्ति को ही प्राधान्य दिया है। सम्यक्त्वधारी ओर सम्यक्त्वराग की उक्त दो व्याख्याओं से सम्यक्त्व के जो दो स्वरूप सामने आते हैं वे हैं(१) अर्हत् को नमस्कार सम्यक्त्व है तथा (२) जीवाजीव के सिद्धान्त में श्रद्धाभाव भी सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व के इन दो स्वरूपों में केवल शाब्दिक भेद है यथार्थ भेद नहीं । पहले में जीवाजीव के सिद्धान्त के प्रतिपादक को प्राधान्य दिया गया है और दूसरे में सिद्धान्त को। यह सामान्य अनुभव का विषय है कि जिस व्यक्ति के प्रति श्रद्धा हो उनके वचनों में श्रद्धा स्वयमेव होती है। इसी अनुभव के बल पर पद्मकीर्तिने प्रथम सिद्धान्त के प्रतिपादक में श्रद्धा रखने का उपदेश किया ओर तदनंतर उसके वचनों में। उक्त प्रकार से सम्यक्त्व के स्वरूप को स्पष्ट कर पद्मकीर्ति ने सम्यक्त्व के चार गुण ओर पांच दोषों की चर्चा की है। सम्यक्त्व के चार गुण हैं -(१) मुनियों के दोषों का गोपन, (२) च्युतचारित्र व्यक्तियों का पुनः सम्यक्चरित्र में स्थापन (३) वात्सल्य, (४) प्रभावना । पांच दोष हैं -(१) शंका, (२) आकांक्षा (३) विचिकित्सा, (४) मूढदृष्टि, (५) परसमयप्रशंसा । सम्यक्त्व के इन गुणदोषो के संबन्ध में तत्वार्थसूत्र तथा उसकी टीकाओं में इस रूप से विचार नहीं किया गया है । तत्त्वार्थसूत्र (६. ४ ) की टीका करते हुए सर्वार्थसिद्धिकारने दर्शनविशुद्धि के आठ अंगों का उल्लेख किया है। वे आठ अंग हैं-निःशङ्कितत्व, निकौक्षिता, विचिकित्साविरह, अमूहदृष्टिता, उपबृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना । सर्वार्थसिद्धि द्वारा गिनाए गए ये आठ अंग प्रायः वे ही हैं जिन्हें पद्मकीर्तिने सम्यक्त्व के गुण-दोषों के रूप में १. पा. च. ३. ४. ४-५. २. वही ३. १२.३-८. ३. पा. च. ३. ४, ६-७. ४. पा. च. ३. ४. ८.९, १० तथा ३. ५. १.३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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