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________________ टिप्पणियाँ [२१६ बारहवीं सन्धि १२.४.३ करणवरंतउ-यहाँ संकेत यवनराजके उस सन्देशकी ओर है जिसके द्वारा उसने रविकीर्तिकी कन्या प्रभावतीसे विवाह करनेका प्रस्ताव किया था। १२.५.९ सारहीणु-पंक्तिमें जो दो सारहीण शब्द आए हैं उनमेंसे प्रथमका अर्थ 'शक्ति रहित या पौरुषहीन' है तथा दूसरे __ का 'सारथिके द्वारा' है। दूसरा सारहीण-सारथिनाका, अपभ्रष्ट रूप है। १२.६.१० कोणु-इस शब्दका अर्थ काला होता है। राहु और केतु दोनों ग्रह तमग्रह कहलाते हैं। तमका अर्थ भी काला ही है; अतः यहाँ कोणु गहसे आशय केतुसे है। १२.७.८ मज्झम्मि ( मध्ये )-प्राकृतभाषामें पुलिंग-नपुंसलिंग सप्तमी एकवचनकी विभक्ति ‘म्मि' है (हे. ८.३.११)। अपभ्रंशमें मज्झे या 'मज्झि' रूप होगा। १२.९.१६ अहवइ भुवणे। -आशय यह है कि जो व्यक्ति जगमें महान और समर्थ है उसके विरुद्ध दूसरा व्यक्ति रणमें कुछ नहीं कर सकता; वह केवल अवनत ही हो सकता है। १२.१०.१६हलुयारउ-लधुकमें वर्ण व्यत्यय होकर हलुय शब्द बना है; तदनन्तर उसमें तरम् प्रत्यय जोड़ा गया है। बुंदेली में हलकवार शब्दका प्रयोग इसी अर्थमें आज भी होता है। -डहारउ-डहर शब्दका अर्थ शिशु, लघु, छोटा या तुच्छ होता है (दे. मा. ४.२)। डहार शब्द डहरसे ही बना हुआ प्रतीत होता है। इस पूरी पंक्तिका आशय इस प्रकार है-जो मनुष्य व्यर्थ गर्जन-तर्जन-द्वारा अपने शौर्यका डिडिमनाद करता है वह हलका तथा तुच्छ समझा जाता है। १२.१२.२ से २०-इन पंक्तियों में प्रयुक्त छन्दका निश्चय नहीं किया जा सकता। पुण्पदंतके महापुराण (२.३) में भी इस छन्दका प्रयोग किया गया है। सम्भव है यह रेवआ नामकी दुवई हो जिसमें कि केवल पाँच ही मात्राएँ होती हैं (स्व. छ. ७.४)। १२.१२.६ गहु कमइ (नभः क्रमते )-छलांग मारनेसे आशय है। १२.१३.९ मणपवरणखित्तु ( मनपवनक्षिप्तः)-इस समासमें 'वेग' शब्दका लोप हुआ है। उसका विग्रह इस प्रकार है मनपवनवेगेन क्षिप्तः। क्षिप्त शब्द यहाँ संचरितके अर्थमें प्रयुक्त हुआ है। १२.१४.११पंगु-यवनराजको यहाँ पंगुकी उपमा दी गई है। कवि वह उपमा देकर यह व्यक्त करना चाहता है कि जिस प्रकार पंगु व्यक्ति अपनी अशक्तताको जानता हुआ भी आवश्यकता आने पर प्राणपणसे लड़नेको उद्धत हो जाता है उसी प्रकारसे यवनराज भी अपनी असमर्थताका अनुमान कर अपनी समस्त शक्तिसे युद्ध करने लगा। तेरहवीं सन्धि १३. २.८ सिप–इस शब्द का अर्थ सिप्प शिल्प या सप्पि (सर्पिण) किया जा सकता है। देशीनाममाला (८.२८) के अनुसार सिप्पका अर्थ पुआल भी होता है। पर इन तीनोंका सुअवसरसे सम्बन्ध स्पष्ट नहीं है। शिल्पकार्य ( कारीगरीके काम ) को कुछ अंश तक सुअवसरपर प्रस्तुत किए जानेकी कल्पना की जा सकती है। १३.६.३ विवाह के लिए शुभ नक्षत्र मृगशिरा, हस्त, मूल, अनुराधा, मघा, रोहिणी, रेवती, तीनों उत्तरा तथा स्वाती हैं। ये सब वेध रहित होना चाहिए “निर्वेधैः शशिकरमूलमैत्र्यपित्रब्राह्मान्त्योत्तरपवनैः शुभो विवाहः।" मु. चि, ६.५५ १३. ६.६ यहाँ बुधवार, गुरुवार तथा शुक्रवारको शुभ तथा शेष वारोंको अशुभ बताया है । आरम्भसिद्धिके अनुसार रवि, मंगल तथा शनि क्रूर और शेष सौम्य हैंरविकुजशनयः कराः सौम्याश्चान्ये पादोनफलाः-आ.सि.१.१६ । दिन शूद्धिदीपिकाके अनुसार सोमवार, शुक्रवार तथा गुरुावरके स्वामियोंको सौम्य, मंगल आदि शेष वारोंके स्वामियोंको क्रूर तथा बुधको सहायसम (मध्यम ) माना गया हैचं सुगु सोमा म स र क्रूर य बुहो सहायसमो-दि. दी. २. तात्पर्य यह है कि सोमवारको किसीने शुभ तथा किसीने अशुभ दिन माना है। १३.६.९ थिरवार (स्थिरवार)-शनिवारको यहाँ स्थिरवार कहा है, सम्भवतः इसलिए कि शनि कुम्भ राशिका स्वामी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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