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________________ टिप्पणियाँ [२०३ (२३) बादर, (२४) सूक्ष्म, (२५) पर्याप्तक, (२६) अपर्याप्तक, (२७) प्रत्येक शरीर, (२८) साधारण शरीर, (२९) स्थिर, (३०) अस्थिर, (३१) शुभ, (३२) अशुभ, (३३) सुभग, (३४) दुर्भग, (३५) सुस्वर, (३६) दुःस्वर, (३७) आदेय, (३८) अनादेय, (३९) यशःकीर्ति, (४०) अयशःकीर्ति, (४१) निर्माण, (४२) तीर्थङ्कर। इनमेंसे गतिके नरक, तिर्यक् , मनुष्य तथा देव ये चार; जातिके एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पञ्चन्द्रिय ये पाँच; शरीरके औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस तथा कार्मण ये पाँच; अङ्गोपाङ्गके औदारिक वैक्रियक, तथा आहारक ये तीन; बन्धनके औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस, तथा कार्मण ये पाँच; संघातके औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस, कार्मण ये पाँच; संस्थानके समचतुस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, स्वाति, कुब्जक, वामन तथा हुण्डक ये छह; संहननके वज्रर्षभनाराच, वज्रनाराच, नाराच, अर्द्धनाराच, कीलक तथा असंप्राप्तासृपाटिका ये छह; वर्णके कृष्ण, नील, रक्त, पीत, तथा श्वेत ये पाँच; गन्धके सुगन्ध तथा दुर्गन्ध ये दो; रसके खट्टा, मीठा, कडुवा, काषायला, तथा चर्परा ये पाँच; स्पर्शके कठोर, कोमल, हलका, भारी, ठण्डा, गरम, चिकना तथा रूखा ये आठ; आनुपूव्यके उपघात, परघात, आताप तथा उद्योत ये चार; तथा विहायोगतिके मनोज्ञ तथा अमनोज्ञ ये दो प्रभेद हैं । इस प्रकार नामके कुल तिरानवे प्रभेद हुए। ६. १६.६ गोत्रके दो भेद-(१) उच्चगोत्र तथा (२) नीचगोत्र, अन्तरायके पाँच भेद-(१) दानान्तराय, (२) लाभा न्तराय, (३) भोगान्तराय, (४) उपभोगान्तराय तथा (५) वीर्यान्तराय । ६.१६.१२,१३ इन पंक्तियोंमें कविने पुण्य और पापकी खिलाड़ियोंसे तथा जीवकी गिरिउसे उपमा देकर एक प्राचीन खेलकी ओर संकेत किया है। उसका नाम लुक्काछिप्पी या छील-छिलाई है। इस खेल में बच्चोंके दलके एक खिलाड़ीको छोड़कर शेष सब छुपते हैं या एक स्थानसे दूसरे स्थानकी ओर दौड़ते है तथा उस एकको आवाज देकर उसे छूनेके लिए प्रेरित करते हैं। यहाँ कविने पुण्य तथा पापकी छिपने या दौड़ने वाले खिलाड़ियोंसे, जीवकी छूने वालेसे, तथा कषायोंकी छपनेवालों द्वारा दी गई आवाजसे उपमा दी गई है। इस आवाजरूपी कषायसे छने वालाखिलाड़ीरूप जीव इधर-उधर दौड़ता फिरता है। ६.१७.१ बन्ध-कषाय युक्त जीव द्वारा मन, वचन या कायसे किये गये कर्मके योग्य पुद्गलोंका ग्रहण करना बन्ध कहलाता है । बन्धके चार भेद हैं-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः। प्रकृति-स्थित्यनुभागप्रदेशास्तद्विधयः । त. सू. ८.२,३ ६.१७.२ चउदह गुणठाणइँ-मोहनीय कर्मके उदय, उपशम, क्षय तथा क्षयोपशमसे एवं योगोंके कारण जो जीवके भाव होते हैं उनको गुणस्थान कहते हैं। इनकी संख्या चौदह है तथा नाम ये हैं मिच्छादिट्ठी सासौदणो य मिस्सों असंजदो चेव । देसरिदों पमत्तो अपमत्तो तह य णायव्वो ॥ एत्तो अपुवकरणो अणियट्ठी' सुहसंपराश्रो य । ''उवसंतखीणमोहो" "जोगकेवलिजिणो "अजोगी य॥ मू. आ.१२.१५४,१५५ जीवसमास-समस्त संसारी जीवोंको संक्षेपमें बतानेकी विधिको जीवसमास कहा जाता है। इसके चौदह भेद हैं। नामादिके लिए देखिए गो. सा. जी. कां. ७२. ६.१७.४ जोग (योग)-मन वचन तथा कायकी क्रियाको योग कहते हैं-कायवाङ्मनः कर्मयोगः। त. सू. ६.१. -लेस (लेश्या)-कषायके उदयसे जो अनुरंजित योग प्रवृत्ति होती है उसे लेश्या कहते हैं। लेश्याएँ छह हैं(१) कृष्ण, (२) नील, (३) कपोत, (४) पीत, (५) पद्म, (६) शुक्ल । इनमेंसे प्रथम तीन अशुभ तथा अंतिम तीन शुभ होती हैं। -तञ्च (तत्त्व)-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। –पयत्थ (पदार्थ)-उक्त सात तत्त्व तथा पाप और पुण्य ये नौ पदार्थ हैं। ६.१७.५ अंग-आचारादि बारह अंग । इनके नामादिके लिए देखिए संधि ७ कडवक ३ । मारिदो पमत्तों अपम महसंपराश्रो य । म.पा.१२.१५४, । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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