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________________ संभव] शब्दकोश [१८१ /संक-शङ्क (=शंका करना) संढ-षण्ढ १.१६.२,३.८.४ भू. कृ. संकिय ६.४.१२, १४.१३.१२ संणिह-संनिभ (=समान) १७.१३.५ पू० कृ० संकिवि १.१४.१३ संताविय-संताप का भू. कृ ६.१०.११ संकप्प-संकल्प ( = संगत आचार ) २.१६.७ संति-शान्ति १२.११.१४ संकर-शंकर (= कल्याण करने वाला ) १५.११.७ संति-शान्ति नाथ (१ =सोलहवाँ तीर्थकर) १७.१०.७ संकामिय-सं+ क्रम् + प्रे० भू० कृ. ८.२३.२ (२=पांचवें चक्रवर्ती) १७.९.४ संकिय-शंकीतम् (= शंका) १.३.८ संतुढ़िय-संतुष्ट ३.१२.९ संकुल-त स ( = व्याप्त ) ७.८.८ संथारय-संस्तारक (= घासका बिछावन) ३.११.८ संख-संख्या ६.३.५; १२.५.१३ संथुय-संस्तुत ३.२.८ संख-शंख ४.४.३; ६.१९.१५, ८.७.७, ८.१८.२ संदण-स्यंदन १०.४.८,११.३.१४ संख-शंख (= एक द्वीन्द्रिय प्राणी) १८.३.४ संदेस-संदेश ९.१०.१० संखिय-सं+ख्या (= गिनना ) का० भू० कृ. ७.४.६; संदेह-त स २.५.८ १७.१४.११ Vसंध-सं+ धा (= बाण चढ़ाना) संखेव-संक्षेप १६.६.१० वर्त० तृ. ए. संधइ ११.१२.११ संग-त स (=सम्पर्क) १.१२.९; २.४.५, ३.१०.५ पू० कृ. संधिवि १२.५.१ ४.१.३, ४.९.६, ८.२१.४ संधि-तस (= अपभ्रंश काव्योंका सर्ग) १८.२०.१ संगइ-संगति १८.१२.१० संपइ-संपदा २.१.३; संगत्तण-संगत्व (= साथ ) ८.२१.५ /संवजसं + पद् (=प्राप्त होना, उपस्थित होना) संगम-त स (= उपस्थिति ) १४.१७.१२ वर्त० तृ. ए. संपजइ ६.८.१३,१८.१३.१ Vसंगह-संग्रह (= इकट्ठा करना) वर्त० तृ० ए० संगहइ २.४.३ /संपड-सं+पद् ( = मिलना) भू. कृ. संगहिय ३.२.१; ४.१०.३ वर्त तृ०ए० संपडइ ३.७.८ वर्ततृ०व० संपडंति ९.२.८ संगाम-संग्राम ६.२.७, ९.८.२ संघ-त स ३.२.८, ७.६.२ १७.१.७ संपण्ण-प्राप्त १.१३.१३ Vसञ्चर-संचर् (= संचार करना) संपत्त-संप्राप्त २.११.८:५.८.३;७.१०.४ संपावणी-संप्रापणी (= प्राप्त कराने वाली) ७.१.७ वर्त० तृ० ब० संचरन्ति २.८.६ प्रे. भू. कृ. संचारिय ६.१२.१० संपाविय-सं + प्र + आपय (=प्राप्त करना) का भू० कृ ८.२१.४ पू. कृ. संचरिवि ११.५.१४ संपुड-संपुट (=समूह) ३.१.५,१५.१२.८ संपुण्ण-संपूर्ण १.५.९,१.८.१०,२.१४.२,४.४.१०,१४.२५.७ सञ्चार–त स (= आवागमन) १४.२३.६ संछण्ण-संछन्न (= आच्छादित ) १.५.१०; १४.१.१३ संबंध-त स (= सम्बन्ध) १.२.६,१८.१२.५ संजम-संयम १.१.१०, ३.१.६ ( बहुशः) Vसंबज्झ-सं + बध (= बाँधना; लगा हुआ होना) संजय-संयत ३.११.६ वर्ततृ०ए० संबज्झइ १८.७.७ संजोइय-संयोजित १२.१.. संबद्ध-त स २.८.९. संझ-सह्य (पर्वत) ११.१०.९ संबुक्क-शंबूक (=शंख) १८.३.४ संठाण संस्थान २.११.५, ४.३.१०, १४.२३.५ Vसंबोह–सं + बोधय (=संबोधन करना) . संठिय-संस्थित ६.१६.३;८.७.२;८.१२.७,११.४.२,११.६.१०; वर्त तृ०ए० संबोहइ ८.९.६ ११.१२.१५ भू० कृ० संबोहिय १३.१८.९ संड-षण्ड (=समूह) १.५.५,१०.११.३. संभव-त स (=जो संभव हो) १.१०.५ संड-शण्ड (=सांड) १४.१७.५ संभव-त स संभवनाय (= तीसरा तीर्थकर) १७.१०.३ ।। संडासय-(= संडसी) ४.१२.७ ...... . संभव-त स ( = उत्पत्ति) १४.२५.४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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