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________________ पार्श्वनाथचरित [१८, २० करते हुए तथा दस प्रकारके प्रशस्त धर्मको बताते हुए सम्मेदगिरिको गये । भुवनके स्वामी, चारों प्रकारके देवों, गणधरों और ऋषियोंसे युक्त तथा जगके प्रकाशक जिनवर दण्डप्रतर ( तप) को पूराकर तथा एक सौ अड़तालीस प्रकृतियोंका क्षयकर मोक्षको गये तथा उस स्थानपर अविचल तथा शिवसुखसे युक्त होकर निवास किया। ___ महान् तथा मुनियोंमें श्रेष्ठ हयसेन चारों गतियों तथा कलिकालके दोषोंसे रहित होकर तथा केवलज्ञानको प्राप्त कर अपने पुत्रके देशमें पहुँचे ॥१२॥ ग्रन्थका परिचय अट्ठारह सन्धियोंसे युक्त यह पुराण त्रेसठ पुराणोंमें सबसे अधिक प्रधान है। नाना प्रकारके छंदोंसे सुहावने तीन सौ दस कडवक तथा तेतीस सौ तेईस और कुछ विशेष पंक्तियाँ इस ग्रंथका प्रमाण है। यह स्पष्टतः पूराका-पूरा प्रामाणिक है। ऋषियों द्वारा जो भी तत्त्व निर्धारित किया गया है, वह सब इस ग्रन्थमें अर्थ-भरे शब्दोंमें निबद्ध है । जो ऋषियोंने पार्श्व पुराणमें कहा है, जो गणधरों, मुनियों और तपस्वियोंने बताया है तथा जो काव्यकर्ताओंने निर्दिष्ट किया है वह मैंने इस शास्त्रमें प्रकट किया है। जिससे तप और संयमका विरोध हो वह मैंने इस ग्रन्थमें नहीं कहा । जिससे सम्यक्त्व दूषित हो, उस आगमसे भी मेरा कोई प्रयोजन नहीं रहा। विपरीत-सम्यक्त्व-सहित किन्तु मनोहरकाव्य मिथ्यात्व उत्पन्न करते हैं तथा किंपाक फलके समान अन्तमें असुखकर होते हैं ॥२०॥ . २१ ग्रन्थके पठन-पाठनसे लाभ जो इस महापुराणका श्रवण करेगा वह त्रिभुवनमें प्रामाणिक होगा; उसको भय या पराभव कोई नहीं करेगा, उसे ग्रहों और राक्षसोंकी पीड़ा नहीं होगी, उसे अपशकुन दूषित नहीं करेंगे, उल्टे वे नष्ट हो जायेंगे, उसे व्यन्तर और भुजंग नहीं डसेंगे. अग्नि उसे नहीं जलायेगी, व्याधियाँ उसे नहीं होंगी, उपसर्ग-पीड़ा और शत्रु नाशको प्राप्त होंगे, गज, वृषभ और सिंह उसपर आक्रमण नहीं करेंगे. हानि पहुँचानेवाले, चोर तथा रागयुक्त व्यक्ति उसे दरसे प्रणाम करेंगे. जलसे भरी हई विशाल नदी उसके लिए पादगम्य होगी तथा जलप्रवाहमें डुबाकर बहा न ले जायेगी, डाकिनी, पिशाच तथा ग्रह उसे आक्रान्त नहीं करेंगे, रणभूमिमें रिपु उसकी गतिका अवरोध नहीं करेंगे, उसे राजपीडा नहीं होगी तथा दुष्ट पशु उसे भय नहीं पहुँचायेंगे ॥२१॥ जो कर्णों को सुहावने इन अक्षरोंका हृदयसे स्मरण करेगा उसके घरमें भी अग्नि, भूत, ग्रह और पिशाच उपद्रव नहीं करेंगे ॥२१॥ २२ पद्मकीर्तिकी गुरु-परम्परा इस पृथ्वीपर सुप्रसिद्ध, अत्यन्त मतिमान् , नियमोंको धारण करनेवाला तथा श्रेष्ठ सेनसंघ है। उसमें चन्द्रसेन नामके ऋषि थे जिनके जीवित रहनेके साधन ही व्रत, संयम और नियम थे। उनके शिष्य महामती, नियमधारी, नयवान् ,गुणोंकी खान, ब्रह्मचारी तथा महानभाव श्री माधवसेन थे। तत्पश्चात् उनके शिष्य जिनसेन हुए। पूर्व स्नेहके कारण पदमकीर्ति उनका शिष्य हआ जिसके चित्तमें जिनवर विराजते थे। जिनवरके धर्मका प्रवचन करनेवाले, गारव, मद आदि दोषोंसे रहित तथा अक्षरों और पदोंको जोडनेसे लज्जित मैंने जिनसेनके निमित्तसे इस कथाको रचा है। लोकमें मनुष्योंको जिसका भाव रुचिकर होता है वह ककवित्व भी जनोंमें सुकवित्व बन जाता है। यदि मैंने भलसे कुछ कह दिया हो तो, हे सज्जनो, उसे आप अवश्य क्षमा करें। श्री गुरुदेवके प्रसादसे मैंने यह समस्त चरित लिखा है। मुनिश्रेष्ठ पदमकीर्तिको जिनेश्वर विमल बुद्धि प्रदान करें॥२२॥ ॥अठारहवीं सन्धि समाप्त ॥ ॥श्री पार्श्वनाथचरित समाप्त ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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