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________________ सत्रहवों सन्धि . केवलज्ञानरूपी दिवाकर जिनवर त्रिभुवनरूपी सरोवरमें उत्पन्न समस्त भविकजनरूपी कमलोंको पृथिवीतलपर प्रतिबोधित करते थे। जिनेन्द्रका कुशस्थलीमें आगमन परमेश्वर, जिनवर, ज्ञानपिण्ड तथा सर्वज्ञदेव भविक-जन-रूपी कमल-समूहको प्रतिबोधित करते, जगमें दो प्रकारके परम धर्मको प्रकाशमें लाते तथा दुष्कर्मोका नाश करते थे। चौंतीस परम अतिशयोंसे युक्त वे त्रिलोकके स्वामी संशयको दूर करते थे । दूसरोंके शास्त्रोंका खण्डन करनेवाले, जगको प्रकाशित करनेवाले, चारों प्रकारोंके देवोंके समूहसे युक्त, गणधर तथा विद्याधरोंके संघसे घिरे हुए तथा धरणेन्द्र, चन्द्र और अमरेन्द्र द्वारा पूजित पार्श्व जिनदेव पृथिवीपर नगरों और पुरोंमें विहार करते, मनुष्योंको संसार (सागर) के पार उतारते, अनेक प्रकारके दारुण दुखोंसे सन्तप्त भव्यजनोंको धर्म मार्गमें लाते. भविकजनोंकी जरामरणरूपी व्याधिको दूर करते तथा अनेक शिष्योंको एकत्रित करते थे। मनुष्यों और देवोंसे घिरे हुए तथा भय, मद आदि दोषोंसे रहित जिनवर कुशस्थल नामक नगरमें पहुँचे तथा ( वहाँ एक ) मनोहर उद्यानमें ठहरे ॥१॥ रविकीर्तिका जिनेन्द्रके पास आगमन विशाल उद्यानमें देवका आगमन देखकर उद्यानपाल मनमें आनन्दित हुआ। जिनवरको चरणोंमें प्रणाम कर वह हर्षित मनसे, रविकीर्ति जहाँ थे, वहाँ पहुँचा । पहुँचकर उसने राजाको (इन शब्दोंमें ) बधाई दी-"आपके उपवनमें जिनवर आये हुए हैं।" उद्यानपालका कथन सुनकर ( राजाने ) अपना आसन छोड़ा तथा सात पद चला । उसने पृथिवीतलपर अपना शिर रखकर वीतराग परमेश्वरको प्रणाम किया। उठकर वह साधनसम्पन्न पृथिवी-पालक, जहाँ जिनस्वामी थे, वहाँ गया। उपवनमें जिनवरका आगमन सुनकर प्रभावती कन्या अपनी माताको साथ लेकर वहाँ पहुँची। अन्तःपुर (की स्त्रियों) से घिरा हुआ कीर्तिप्राप्त रविकीर्ति जिनवरके समवशरणमें पहुंचा। भटों, भृत्यों और सामन्तोंके साथ वसुधाधिपतिने पृथिवीपर (शिर रखकर ) प्रणाम किया। फिर उठा तथा दोनों हाथोंको जोड़कर और भालस्थलीपर रखकर भुवनके अधिपति जिनवरकी वन्दना की ॥२॥ कुलकरों तथा शलाकापुरुषोंके विषयमें रविकीति की जिज्ञासा जो समस्त त्रिभुवनका शरण स्थान है उस समवशरणको राजाने देखा। वहाँ गणधर, सुर, असुर, नरेन्द्र, विद्याधर, मनष्य तथा ऋषि बैठे हुए दिखाई दिये। राजा ( रविकीर्ति) ने अन्तर छोड़कर क्रमसे बैठे हुए उन सबसे अनुक्रमसे सम्भाषण किया, देवोंके देवको प्रणाम किया तथा त्रिषष्टि ( शलाका ) पुरुषोंके बारेमें पूछा-"आप बताएं कि कुलकरोंकी, दस प्रकारके उत्तम कल्पवृक्षोंकी, चौबीस परम तीर्थकरोंकी, छह खण्डोंवाली पृथिवीके परमेश्वरों (चक्रवर्तियों) की, हलधर, नारायण और प्रति Jain.Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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