SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 391
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६ ] पार्श्वनाथचरित [ १४, २२ तब वहाँ कृष्ण, भयंकर, अग्निका नाश करनेवाले, विशालकाय मेघोंमें वृद्धि हुई । वे कहीं नहीं समाते थे तथा प्रबल पवन से प्रेरित हो ऐसे प्रतीत होते थे मानो ( उन्होंने ) ग्रीष्मके ऊपर आक्रमण किया हो ॥ २१॥ २२ पृथिवीकी जलमग्नता "रे दुस्सह, दुर्धर, पापी, खल-स्वभाव, ग्रीष्म, तूने इस पृथिवीको ताप क्यों पहुँचाया ? तू यदि यथार्थमें ग्रीष्म नाम धारण किये है तो हमारे साथ युद्ध कर ।" मानो यह कहते हुए विशालकाय और कृष्ण मेघ चारों दिशाओंसे टूट पड़े। वे गुलगुल ध्वनि करते हुए तथा वज्राघातोंसे पृथिवीको विदारते हुए बरसने लगे । वे कन्दर, तट और पथको ( जलसे ) भरते तथा विद्युत् प्रकाशके साथ आकाशमें संचार करते थे । वे प्रमाण - रहित मात्रा में विपुल वर्षा करते तथा पृथिवी के साथ ही साथ गगनको भी धोते थे । अनन्त आकाशमें वे घन देखनेमें भयावने थे तथा प्रलय कालके समान जल बरसाते थे । भीषण, रौद्र, दुस्सह, प्रचण्ड, गर्जते हुए, महान् बृहत् प्रबल, विशालकाय, सघन, कृष्ण- शरीर द्रोणमेघ जल बरसाने लगे । मेघोंने गगनतलको अन्धकारमय किया जैसे कि खलके वचन सज्जनके शरीर को करते हैं । नूतन देवाले मेघोंने जलको, थलको और महीतलको महार्णवके समान भर दिया । ( वे मेघ) विविध आकारकी अनेक तरंगों के द्वारा दसों दिशाओं में जल उछालते थे और दौड़ लगाते थे ॥२२॥ २३ जलौघकी सर्वव्यापकता जब वे इस प्रकारसे एक ही क्षण बरसते थे तब उपवन, वन तथा कानन ( जलसे) भर जाते थे । कृष्ण और रौद्र जल कहीं नहीं समाता था तथा सहस्रों तरंगोंके द्वारा पृथिवीपर ही जाता था । जलने पूरे पृथिवीतलको परिप्लावित किया ( इससे ) समस्त जनपद निवासी आशंकित हुए। जिन तपस्वियों और तपस्विनियोंने रहनेके स्थान बना लिये थे वे सब बिना विलम्ब किये भाग गये । रौद्र जल ( पृथ्वीपर) आने लगा मानो समुद्र अपनी मर्यादा छोड़ चुका हो । जब समुद्र ही अवमार्गपर चलने लगा तब गमनागमन आदि संचार बन्द हो गये । पट्टन, नगर-समूह, ग्राम, देश आदि सब रत्नकारके क्षेत्रमें लाये गये । गज, महिष, रोज्झ, वृषभ तथा श्वान आदि दीन पशु भी जल प्रवाहमें डूब गये । पृथिवीको परिपूर्ण कर जल आकाशमें जा लगा और वहाँ उसने सूर्य तथा चन्द्रकी किरणोंके मार्गका अवरोध किया । मूसलके प्रमाणकी असंख्य धाराओंसे जल सात दिनतक गिरता रहा फिर भी क्षमा, स्वामीका मन क्षुब्ध नहीं हुआ ||२३|| २४ धरणेन्द्रको उपसर्गकी सूचनाकी प्राप्ति; धरणेन्द्रका आगमन घोर और भीषण उपसर्ग करनेवाले तथा विपुल शीतल जलकी वृष्टि करनेवाले असुरकी लगातार सात रात्रियाँ व्यतीत हुईं तब भी उसका मन द्वेष रहित नहीं हुआ । घनों द्वारा बरसाया गया जल ज्यों-ज्यों गिरता था त्यों-त्यों वह जिनेन्द्रके कन्धेके पास पहुँचता था । तो भी उस धीरका चित्त चलायमान नहीं हुआ; ( यहाँतक कि ) उसके शरीरका बाल भी नहीं हिला । जब जल जिनेन्द्रके कन्धेको पार कर गया तब धरणेन्द्रका आसन कम्पित हुआ । मन्त्री- रहित राज्यके नृपतिके समान, मरण काल दान्ति तथा नियमसे युक्त जिनवर वैद्यसे रुष्ट ( रोगी) के समान, गगनमें विरोधी श्येन (पक्षी) से पकड़े गये (पक्षी) के समान, मननहीनका व्याकरण पढ़ने के समान तथा आलाप न करनेवालेके स्नेहके समान नागराजका आसन कम्पायमान हुआ । उसने तत्काल ही अवधिज्ञानका प्रयोग किया और समस्त कारणकी जानकारी की। जिसके प्रसादसे मुझे नीरोगता और देवत्वकी प्राप्ति हुई उसके लिए महान् उपसर्ग उपस्थित है । (यह जानकर ) वह उसी क्षण नागकन्याओंसे घिरा हुआ चल पड़ा । मणि-किरणों से शोभित तथा मनमें मान धारण किये हुए वह नाग पातालसे निकला तथा मंगलध्वनि करता हुआ और नागकन्याओं से घिरा हुआ तत्काल वहाँ आया || २४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy