SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 389
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४] पार्श्वनाथचरित [१४, १६आकाशमें समाती नहीं थी अतः रवि और शशिकी किरणोंके भी ऊपर पहुँचती थी। भीमाटवी नामक वन जलने लगा तथा भयाकुल जन पलायन करने लगे। किंतु जिनवरकी समाधि मानो जलसे आई थी अतः वह अग्नि मानो जल गिरनेसे शान्त हो गई। ___ वह अग्नि, जो गगनमें फैल रही थी, जो दाह उत्पन्न कर रही थी, जो रक्तवर्ण थी तथा जो देखनेमें भयावनी थी. वह जिनवरके सलिल प्रवाहरूपी अविचल भावसे हिमके समान प्रतीत हुई ॥१५॥ असुर द्वारा उत्पन्न किये गये समुद्रकी भयानकता जब भीषण अग्निका शमन हो गया तब असुरने समुद्रका प्रादुर्भाव किया। वह ( समुद्र) भीषण, अशोष्य, दुस्तर और प्रचण्ड था मानो गगनका कोई भाग टूटकर गिर पड़ा हो । अनेक मत्स्य और कच्छपोंसे युक्त, प्रबल आवतों सहित, समस्त पृथ्वी तथा नभको अपने प्रवाहसे जलमग्न करता हुआ, प्रबल पवनसे चालित, गुल-गुल ध्वनि करता हुआ, गम्भीर तरंगोंको उछालता हुआ, अनेक भीषण चलचरों एवं फेनसे युक्त, गगनकी समस्त धूलिका परिमार्जन करता हुआ, विविध कल्लोलों तथा अनन्त और अगाध जलवाला, गर्भमें बड़वानल लिये हुए, दुष्ट मकरोंसे युक्त वह रत्नाकर कल्पान्तके समय मानो मर्यादा छोड़कर पृथिवीको परिप्लावित करता हुआ आया। शनैः-शनैः ही पूरा समुद्र जिनवरके चरणोंके पास पहुँचा। आते-आते उसकी तीव्र गति जाती रही । जिनवररूपी सूर्यने तपरूपी किरणोंसे समुद्रको क्षण भरमें सोख लिया । कलिकालके दोषोंसे रहित, नियमधारी जिनभगवान् मेरुपर्वतके शिखरके समान अविचल रहे। वे पृथिवीको जलमें डुबानेवाले रत्नाकरके जलके प्रवाहके कारण ध्यानसे विचलित नहीं हुए ॥१६॥ असुर द्वारा उत्पन्न किये गये हिंसक पशुओंकी रौद्रता मध्यस्थ भावधारी, निःशस्त्र और कषाय-रहित वीतराग जब ध्यानसे विचलित न हुए तब किलकिल ध्वनि करता हुआ, क्रोधानलकी ज्वालाओंसे प्रज्वलित, अनेक और विविध शब्दोंका प्रयोग करता तथा बड़बड़ाता हुआ वह भीषण और विरोधी असुर श्वापदोंका प्रदर्शन करता हुआ दौड़ा। उसने बड़े नाखूनोंवाले शार्दूल, सिंह, विशाल वानर, गेंडा, श्वान, रीछ, सर्प, अजगर, सूकर, प्रबल भैंसे, लम्बी पूंछवाले गज, शरभ, साँड़ तथा अन्य जो भी पशु होते हैं उन सबको प्रदर्शित किया। कोई अपनी लम्बी Jछ फटकारते और कोई दारुण और अत्यन्त रौद्ररूपसे दहाड़ते थे। कोई भीषण रूपसे डेंकते हुए उछलते तथा पृथिवी और आकाशको पैरोंसे रौंदते थे। वे पार्श्वकी आठों दिशाओंमें चक्कर काटते पर उन्हें कोई अशक्तता नहीं दिखाई देती थी। चारों गतिके दोषोंसे रहित जिनभगवान् इशुगारके समान ध्यानमें लीन हुए स्थित रहे। भयके नामको न जाननेवाले तथा ध्यानको अङ्गीकार करनेवाले (जिनभगवान् ) की उपस्थितिमें दुष्ट श्वापदोंकी सेना उसी प्रकार नष्ट हो गई जिस प्रकार दाँतोंके कारण विकराल शरीरवाले सिंहके साक्षात्कारसे पशुओंका समूह पलायन कर जाता है ॥१७॥ असुर द्वारा उत्पन्न किये गये भूत-प्रेतोंकी वीभत्सता जिनभगवान्को भय-रहित और श्वापदोंके भयंकर उपसर्गको निष्फल होते देखकर असुरेन्द्रने एक दारुण और अत्यन्त दुखदायी उपसर्ग-जालका पुनः प्रारम्भ किया। उसने विशाल-काय वैताल, भूत, जृम्भक, पिशाच, प्रेताधिप और व्यन्तर तथा असंख्य डाकिनी, ग्रह, सर्प, गरुड, यक्ष, कुभण्ड और बाण प्रदर्शित किये। उछलकर चलनेवाले, चर्मके वस्त्र धारण किये हए. डमरु, त्रिशूल और तलवार हाथमें लिये हुए, मनुष्योंके सिर और कपाल हाथमें रखे हुए, रुधिर, मांस, चर्बी और खून पीते हुए, 'मारो-मारो' की टेर लगाते हुए, लम्बी जीभवाले, लम्बी हुंकार करते हुए, तीर्थङ्करको चारों दिशाओंमें आक्रमित करते हुए तथा विकराल रूपसे चिंघाड़ते हुए वे दौड़े। सिद्धान्त, मन्त्र, तप और तेजकी मूर्ति, कामदेवरूपी श्रेष्ठ पर्वतके लिए वज्र, जगमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy