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________________ ७६ ] पार्श्वनाथचरित [ १३, १३करता था । अत्यन्त भीषण प्रहारोंसे जिसके अंग जर्जरित हो गये थे उस भुजंगको परमेश्वरने देखा तथा उस क्षण ही उसके कानमें जाप दिया। वह स्थिर मनसे पंचत्वको प्राप्त हुआ तथा पातालमें नागराजके बीच तीन पल्य आयुवाले वन्दीवर देवके रूपमें उत्पन्न हुआ । कुमार सर्पकी मृत्युको देखकर इस जगकी और उसकी असारताकी निन्दा करने लगा कि यह जीवन तृणपर स्थित जलबिन्दुके समान है तथा जो कर्म जिसने किया है वह उसे भोगता है । यह लक्ष्मी गजके कर्णोंके समान चंचल है । वह जहाँ-जहाँ पहुँचती है वहाँ वहाँ अशुभ करती है । जहाँ शरीर में व्याधियोंका वृक्ष वर्तमान है वहाँ जीवित रहते हुए पुरुषको कौन-सा सुख हो सकता है ? यही (सर्प) पूर्वाह्न में जीवित दिखाई दिया था पर अपराह्नमें उसके जीवनकी समाप्ति हो गई। जबतक मेरी मृत्यु नहीं होती और जबतक इस देहका विघटन नहीं होता तबतक मैं कलिकालके क्रोधादि दोषोंका त्याग कर महान् तप करूँगा ॥ १२ ॥ १३ लौकान्तिक देवका पार्श्वके पास आगमन इसी समय त्रिभुवनमें सुसेवित जो लौकान्तिक देव हैं वे वहाँ आये तथा उन्होंने चरणों में प्रणाम किया और कहा"हम इन्द्रकी आज्ञासे आये हैं । हे भुवन सेवित भट्टारक, आप दीक्षा लेकर लोगोंको संसार के पार उतारिए । हे भुवनके स्वामी, आप तीर्थका प्रवर्तन करें तथा सुखके समूह रूप व्रत और शीलका प्रचार करें। जो स्वयं बुद्ध है तथा जिसे निर्मल गुण समूह अवधिज्ञानकी ( उत्पत्ति ) हो चुकी है उसे कौन बोधि दे सकता है ? हे जगके नाथ, हम तो केवल निमित्तमात्रसे आपके मित्र रूप हैं । हम जो यहाँ आये हैं सो आदेशसे बँधकर ।" इसी अवसरपर त्रिदशपति ईशान कल्पके सुरोंके साथ वहाँ आया एवं जगके प्रधान पार्श्वको मणि, सुवर्ण और रत्नोंसे शोभित शिविकापर आरूढ़ किया। उस शिविकाको पृथिवीपर पुरुषोंने उठाया और आकाशमें देवोंने ऊपर ही ऊपर ग्रहण किया तथा अनेक तरुवरोंसे आच्छादित एवं कोकिल, कपोत तथा शुक्रोंसे युक्त वनमें ले गये । वहाँ जिनेन्द्रको सिंहासनपर विराजमान कर इन्द्र ने क्षीरोदधिके जलसे उनका अभिषेक किया । जिनकी दीक्षा ( का समाचार ) सुनकर सब श्रेष्ठ पुरुष आये । समस्त आभरणोंसे विभूषित देव भी पृथिवीपर एकत्रित हुए ॥१३॥ १४ पार्श्व द्वारा दीक्षा ग्रहण जगके स्वामीने निर्वाण रूपी महानगरी के सुखोंसे समृद्ध सिद्धोंको नमस्कार किया तथा शुद्ध-दृष्टि जिनेन्द्र ने पद्मासन ग्रहणकर पाँच मुट्ठी केशलंच किया । सुवर्णके मणि-पात्रमें उन सब केशोंको लेकर इन्द्रने उन्हें क्षीरोदधिमें विसर्जित किया । उसी समय सर्वकाल स्नेहभाव रखनेवाले तीन सौ श्रेष्ठ पुरुषोंने दीक्षा ली । जगगुरुने आठ उपवास किये, परिहारशुद्धि नामक संयम धारण किया तथा मौनव्रतसे देहकी परिशुद्धि की, फिर गजपुर ( हस्तिनापुर ) में वरदत्तके गृहमें पहुँचे । वहाँ जिनभगवान्ने पारणा की फिर नगर, पुर आदिमें क्रमसे विहार करते हुए वे चले गये । जो ( पुरुष ) उनके साथ दीक्षित हुए थे वे निश्चित मनसे घोर तप करते थे । जिस प्रकारसे स्वामी, उसी प्रकार से वे ( भी ) तप करते थे तथा आगमके निदेशानुसार जीवनचर्या चलाते थे । वे दोषयुक्त योगका तीनों प्रकारसे त्याग करते तथा नगर-समूहोंसे मण्डित पृथिवीपर भ्रमण करते थे । मन, वचन और कायसे शुद्ध, आठों मदोंसे रहित तथा सात भयोंसे मुक्त वे सुव्रतधारी जिनभगवान्की आराधना करते थे ॥१४॥ Jain Education International १५ पार्श्व द्वारा दीक्षा लेनेसे रविकीर्तिको दुख ( इससे ) रविकीर्ति नृपको दुख हुआ । वह कटे वृक्ष के समान पृथिवीपर जा गिरा । विरहसे कातर मनमें विषादयुक्त वह इस भाँति रुदन करने लगा - "आज मेरा कुशस्थल नगर शून्य हो गया है । आज जगके स्वामीके भयावन वियोगसे मेरी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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