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________________ ३,१३] अनुवाद [१६ गुणव्रतोंका निरूपण “( अब ) स्वर्गापवर्ग के सुखको देनेवाले गुणवतोंको मैं बताता हूँ; सुनो ! पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैऋत्य, ईशान, वायव्य इन दिशाओंमें परिमाण ( निश्चित ) कर भ्रमण करना, जिनेन्द्र द्वारा पहिला गुणव्रत कहा गया है। जो दण्ड, अग्नि, फन्दा, शस्त्र, जाल, (काममें नहीं लाते;) कुक्कुट, सर्प, पिंजड़ा (में रखे जानेवाले पक्षी) तथा बिल्लीको न पालते हैं, न खरीदते हैं, न बेचते हैं तथा ( इसप्रकार इन ) तीनोंसे उनके संगका त्याग करते हैं; बैल, भैंसको न दागते हैं, न मारते हैं, न ही इनके कान और पूँछको क्रोधसे मरोड़ते हैं तथा पशुओंको अपनी देहके समान समझते हैं वे दूसरा गुणव्रत धारण करते हैं । जो पान, वस्त्र, आभरण, शय्या, हाथी, घोड़ा, रथ, आसन, धूप, भोजन, फल, विविध सुगन्धि-द्रव्य, मालिश सहित स्नान, कुसुम, स्त्री तथा अन्य प्रधान ( भोगोपभोगकी वस्तुओं) का यथासम्भव परिहार करता है वह तीसरा गुणव्रत धारण करता है।" "पूर्वकालमें हुए मुनियों द्वारा बताये गये तीनों गुणव्रतोंका मैंने निरूपण किया। अब मैं, हे सागरदत्त, चार शिक्षाव्रतोंको बताता हूँ" ॥१०॥ ११ शिक्षाव्रतोंका निरूपण "हे प्रसिद्ध उज्ज्वल (चरित ) सार्थवाह, अब मैं अत्यन्त निर्मल शिक्षाव्रतोंको बताता हूँ; सुनो ! ( वर्षाके ) चार महीनोंमें सब पोंकी स्मृति रखकर श्रावक-भावसे उपवास करना यह पहिला शिक्षाव्रत कहा गया है। इससे मनुप्यके पाप शिथिल होते हैं। सामायिकके साथ संसार-सेवित देवकी आराधना करना दूसरा शिक्षावत कहा जाता है। इससे संसार-सन्द्रसे मुक्ति मिलती है । मुनि, ऋषि, संयत, अनागार, अर्जिका, व्रतधारी ( इन सत्पात्रों ) की द्वारपर प्रतीक्षाकर जो भोजन करता है वह तीसरा शिक्षाव्रत धारण करता है। मृत्यके समय सल्लेखना व्रत धारण करना चाहिए: संथारणपर तपश्चर्या करना चाहिए: धर्मध्यानमें आत्माको स्थिर करना चाहिए तथा पाँच पदवाले नमोकार (मन्त्र) को स्मरण करना चाहिए। (यह चौथा शिक्षावत है)।" “यह बारह प्रकारका धर्म श्रावकोंके लिए कहा गया है। जो मनुष्य परमार्थसे इसका पालन करता है वह दुःखी नहीं होता" ॥११॥ १२ जिनवरकी भक्तिकी प्रशंसा दया धर्म करनेवाले तथा विशुद्ध-चरित मुनिराजने पुनः कहा- "हे सार्थवाह, मैं जो कुछ चिन्तन कर कहता हूँ उसे तुम प्रयत्नपूर्वक सुनो। धवल एवं विमल केवलज्ञानको धारण करनेवाले जिनवरकी भक्ति करना चाहिए। यदि उसकी भक्ति की जाती है जो इन्द्र प्रसन्न होता है तथा विद्या, मन्त्र और महाभगवतीकी सिद्धि होती है। भक्तिसे कुबेर भी घर आता है और अलौकिक वस्तुओंकी प्राप्ति भी होती है। जो ( व्यक्ति ) प्रतिदिन जिनेन्द्रकी भक्ति करता है उसकी प्रशंसा सब भव्यजन करते हैं। भक्तिसे देवलोककी प्राप्ति होती है तथा आत्मा नरकमें गिरनेसे बचती है। भक्तिसे मनुष्यका ज्ञान जाना जाता है और भक्तिसे ही जो कुछ भी है वह सब प्राप्त होता है।" “सन्तुष्ट मनसे जो जिन ( भगवान ) के चरणोंका स्मरण करता है वह संयम नियमसे विभूषित हो वैभानिक देवोंमें संचार करता है" ॥१२॥ सार्थपति द्वारा श्रावक धर्मका अंगीकार ___ मुनिवर द्वारा बताए गए धर्मको सुनकर वह सार्थपति सार्थ सहित प्रणाम कर बोला- "हे स्वामिन् ! मैं पापकर्म करनेवाला एक धर्महीन (व्यक्ति) हूँ। मैं तप करने में असमर्थ हूँ। हे देव, मैं मुनिधर्मके अयोग्य हूँ। मैं घर में निवास करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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