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________________ अनुवाद दूर होता है ? अविचल और परम मोक्षसुखकी प्राप्ति कैसे होती है ? जीव देवविमानको कैसे जाता है ? जीव कल्याणका भोक्ता कैसे होता है ? जिनवरों और गणधरोंके समान निर्दोष प्रवृत्तियाँ कैसे धारण की जाती हैं ? पुरुष महान और उत्तम कैसे होता है ?" _ “हे भट्टारक, किस दोषके कारण मनुष्य दरिद्री होता है और क्यों वह काना, कुब्जा, नपुंसक तथा विकलेन्द्रिय होता है ?" ॥३॥ सम्यक्त्वपर प्रकाश इन वचनोंको सुन प्रियभाषी, संयमशील, आस्त्रवरहित तथा तपसे तपाए हुए तेजोगुणको धारण करनेवाले राजा अरविन्द बोले- "हे सार्थवाह ! मैं सम्यक्त्वरत्नके बारे में बतलाता हूँ, तुम ध्यानपूर्वक सुनो। अरहंत भट्टारक देवाधिदेव हैं। वे अट्ठारह दोषोंसे विमुक्त हैं। जो प्रणाम कर उनका प्रतिदिन चिन्तन करता है वह सम्यक्त्वधारी कहलाता है। जीवाजीवादि तत्वों और मार्गणाका जो सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है उसपर श्रद्धाभाव रखना सम्यक्त्व अनुराग कहा जाता है। वह ( सम्यक्त्व ) चार गुणों द्वारा निर्मल और पाँच कारणोंसे मलिन होता है।" "मुनिवरोंके दोष ढाँकना, भग्नचरित्रोंको (धर्ममें पुनः ) स्थापित करना, वात्सल्य भाव रखना और (धर्म की) प्रभावना करना इन चार गुणों द्वारा सम्यक्त्व स्थिर होता है" ॥४॥ सम्यक्त्वके दोष, उनका दुष्परिणाम “पहिला शंका (और दूसरा ) आकांक्षा नामका दोष है। ये सम्पूर्ण रत्नत्रयको दूषित करते हैं। तीसरा दोष विचिकित्सा कहा गया है और चौथा मूढदृष्टि । मुनियोंके कथनानुसार पाँचवाँ दोष परदर्शन-प्रशंसा है। इन ( पाँचों) से सम्यक्त्व की हानि होती है । ये ही पाप की खान हैं । इनसे परभधर्म दूषित होता है । इनसे मनुष्यजन्म हाथसे जाता रहता है। इनसे नरकदुःख मिलता है और मोक्षसुख प्राप्त नहीं होता। इनके द्वारा तप और संयम निष्फल हो जाते हैं। इनसे कोई भलाई नहीं होती । इनसे मिथ्यात्व, कषाय और दोषोंका उपशम नहीं होता प्रत्युत ( कोंका ) बन्ध होता है।" "जैसे अग्निके संसर्गसे उत्तम वृक्ष भी गुणहीन हो जाता है उसी तरह दोषोंसे युक्त सम्यक्त्व जीवके लिए निष्फल होता है" ॥५॥ सम्यक्त्वकी प्रशंसा जिसके मनमें अविचल सम्यक्त्व है उसके लिए जगमें, बताओ, क्या सफल नहीं ? जिसे सम्यक्त्व प्राप्त है उसे परम सुख प्राप्त है। जिसे सम्यक्त्व प्राप्त है उसे मोक्ष प्राप्त है। जिसे सम्यक्त्व प्राप्त है उसे नाना ऋद्धियाँ प्राप्त हैं। जिसे सम्यक्त्व प्राप्त है उसे मन्त्र सिद्ध हैं। सम्यक्त्वसे स्वर्गमें निवास और अजर, अमर, शिव तथा शाश्वत पदमें स्थान प्राप्त है। सम्यक्त्वसे नरक के दुखका नाश होता है और कोई व्याधि-वृक्ष नहीं पनपता । सम्यक्त्वसे गणधरत्व और देवत्व प्राप्त होता है तथा इसीसे पृथिवी-प्रभु और चक्रेश्वर होते हैं इसीसे त्रिभुवनमें सर्वश्रेष्ठ तीर्थकर-संज्ञा प्राप्त होती है। सम्यक्त्वसे स्वर्गमें ( मनुष्य ) सुरपति होता है । सम्यक्त्वसे भूलोक ( में उत्पत्ति ) दुर्लभ है।। “सम्यक्त्वके कारण मनुष्य, यदि वह जैनधर्मका त्याग नहीं करता और वह पहिलेसे बद्धायुष्क नहीं होता, तो वह (कोंसे ) अनुबद्ध न होकर नरक तथा तिर्यक योनि में उत्पन्न नहीं होता" ॥६|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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