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________________ व्याकरण | करण बहुवचन की विभक्ति हि है । (ई) षष्ठि एकवचन की विभक्ति 'है' है यथा सम्मेयगिरि ३. १६. ५, रविकित्ति ११.४. ६ । ( उ ) अधिकरण एकवचन की विभक्ति 'हि' है यथा समेयगिरिहि १८. १९. ८ । (५) इकारान्त तथा उकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों की कारक विभक्तियां : ( अ ) कर्त्ता तथा कर्म एकवचन की कोई विभक्तियाँ नहीं है । बहुवचम के लिए 'उ' प्रयुक्त होता है । इस 'उ' के पूर्व मूल शब्द का अंतिम स्वर जब कब दोर्घ कर दिया जाता है यथा- उगी ६.११. ११, ईउ १६. १३. ४ आदि । (आ) करण एकवचन की विभक्ति 'ए' तथा बहुवचन की हि हे । यथा धरिणिए १. १६. ६, जणणिए १.१५.४, वाहिहि २. १३. ८ । २. १३. १२ में प्रयुक्त 'वाहीहिं ' पद में 'इ' छंद की अपेक्षा से दीर्घ की गई है । ११३ (इ) षष्ठि एकवचन की विभक्ति 'हे' है- • घरिणिहे १. १३. १०, करिणिहे ४ १ ३ आदि । इकारान्त पुल्लिंग शब्द की विभक्ति के समान इसका ह्रस्व 'ए' भी बहुधा इ रूप से लिखा गया है यथा- वेतरणिहि णइहि तीरि २.११.३, णवणिहि ँ मज्झि ६. ८. ६, इहि वारि ७. १२. ३ आदि । षष्ठि बहुवचन की विभक्ति हैं है यथा करिणिहँ ४. १. १० । (ई) अधिकरण एकवचन की विभक्ति 'हि' तथा बहुवचन की हि है - गइहि २.१२.१, चउहिँ गइहि २.१४.९ । ( ६ ) परसर्ग— पा. च. में निम्न परसर्गों का उपयोग हुआ है । ( अ ) समउ १. १४.१०, २.१०.१, समाणु १. १६.६, ४. ८. ६ तथा सरिसउ १४.२२.२, १४. २७. ७ । इन तीनों के संयोग से तृतीया विभक्ति आती है। ये तीनों 'के साथ' के अर्थ में प्रयुक्त किए जाते हैं । ये तीनों का उपयोग अव्यय के समान होता है । १५ ( आ कज्जेण २. ३. ९, ९. ६. ११, कर्जे ३. ७. ४, इन दोनों के संयोग से षष्ठि विभक्ति आती है । इनका उपयोग ' के लिए ' के अर्थ में किया जाता है । १४. १९. ३ पर प्रयुक्त कारणु भी इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ प्रतीत होता है । (इ) केरय तथा तणिय । इन दोनों के संयोग से संबंध विभक्ति का प्रयोग होता है । ये दोनों संबंध विभक्ति का ही कार्य करते हैं । इनमें कारक विभक्तियां जुड़ती हैं तथा इनमें संबंध विभक्ति से जुड़ा जो शब्द है उसका लिंग और वचन रहता है यथा- केरउ २.१०.५, १३.११.२, केरा १८. ६.८, केरी १३. १५. ४ । तणउ २. १०.४, ९.८.१, ९.१२.२, ९.११.७, १०.२.८, तणिय ९.५.९, ९.९.९, ९.१२.१, १०.१२.२, १३.७.५, १६.१८.१, १६. १८. ६ । ( उ ) मज्मे –मंज्झि - इसके संयोग से षष्टि विभक्ति आती है । यह अधिकरण का बोध करता है - 'यथा मज्झे वणहो उप्पण्णउ १. २२: १२, देवकुजोणिहि मज्झे वसंतउ २. १४. ५, हउ उप्पण्णउ मज्झे अणेयहँ २. १४. ९; मज्झि मुहुत्तहो उ १४. ३. १२ । (ऊ) उवरि ३.१३.७, ७. १३. ३ तथा उपरि १. १४ ९ १.२१. १, इन दोनों के संयोग से षष्ठि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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