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________________ प्रस्तावना से तथा उसके आ, ई या ऊ में संकोचन होने से अनेक शब्द पुनः दीर्घ स्वरों में अन्त होने लगे। पा. च. में कवि ने हस्व स्वरान्त या दीर्घ स्वरान्त शब्दों का प्रयोग छंद की आवश्यकता के अनुसार किया है फिर भी वहाँ हस्व स्वरान्त शब्दों की संख्या अपेक्षाकृत बहुत अधिक है। (२) पा. च. में शब्दों के अन्त में स्वार्थे य (क) जोड़ने की सामान्य प्रवृत्ति है। इस अर्थ में क का उपयोग संस्कृत से प्रारंभ हुआ, प्राकृत में उपयोग में वृद्धि हुई तथा अपभ्रंश में वह चरम-सीमा पर पहुँचा । इसके उपयोग का फल यह हुआ कि इकारान्त या उकारान्त शब्द अकारान्त में परिणत हो गए। कारक विभक्तियां १) पा. च. की भाषा से प्रतीत होता है कि उस काल की अपभ्रंश में विभक्तियां विघटन की अवस्था में थी, इस अवस्था का अनुमान कर्ता तथा कर्म, कुछ अंशों में करण तथा अधिकरण तथा सम्प्रदान, अपादान और संबंन्ध की विभक्तियों के एकीकरण से; शब्दों के लिंग में एकरूपता के अभाव से, अकारान्त शब्द की विभक्तियों के प्रचुर प्रयोग से तथा मिन्न २ विभक्तियों का कार्य परसर्गों के द्वारा लिए जाने की प्रवृत्ति से लगाया जा सकता है। (२) अकारान्त पुलिंग नपुसंकलिंग शब्दों की कारक विभक्तियां - (अ) इन शब्दों की कर्ता तथा कर्म की एकवचन विभक्ति 'उ' है। पुलिंग शब्दों में जब कब उ के स्थान पर ओ का भी उपयोग हुआ मिलता है । ओ का उपयोग बहुधा छंद की आवश्यकता के कारण हुआ है। जिन छंदों में अन्त एक गुरु से व्यक्त किया जाता है वहां 'उ' के स्थान में 'ओ' का उपयोग कठिनाई हल कर देता है। इस कारण से ओ विभक्ति का उपयोग दुवई (६. २. १--२; ६. ४. १-२, ६. ७. १-२), शंखणारी ( ७. ९. २ से १२) प्रमाणिका (७. ८. १ से ५) आदि छंदों के अन्त में बहुतायत से हुआ है। अकारान्त पुल्लिंग कर्ता तथा कर्म की बहुवचन की कोई विभक्ति नहीं है किंतु नपुसंक लिंग में ई का उपयोग होता है। जब कब एकवचन विभक्ति के लिए प्राकृत विभक्ति 'अ' का भी उपयोग हुआ है। इसका उपयोग भी संभवतः छंद की अपेक्षा से या उन स्थलों पर हुआ है जो प्राकृत भाषाप्रधान है- यथा-करिजं १. १८. ६; सिरं ५. १२. १२, कयं ५. १२. १२, तीरं १२. ७. ५, आदि । पुल्लिंग शब्दों की कर्ता बहुवचन विभक्ति के रूप में बहुधा स्वार्थे प्रयुक्त य (क) का संकोचितरूप आ आया है । यह भी स्पष्टतः छंद की अपेक्षा से प्रयुक्त किया गया है क्योकि हम इसे इन्हीं छंदों में प्रयुक्त हुआ पाते हैं जहां अंत में एक गुरु आवश्यक है जैसे कि शंखणारी छंद में (५. १२. १ से १३)। • (आ) – करण एक वचन की विभक्तियां एँ तथा एण हैं। ई (रुवंत. १, १९-६) तथा इण (कमिण) १४. १. १२) इन्ही दो के रूप हैं। जो 'ए' को हस्व किए जाने से उस रूप में लिए गए हैं। एँ तथा एण का उपयोग प्रायः समान रूप से हुआ है - कम अधिक नहीं । उदाहरण के लिए चौदहवीं संधि में एँ का उपयोग २८ बार तथा 'एण' का २५ बार हुआ है । 'एण' का उपयोग अधिकतः पञ्झटिका छंद के पादान्त में मिलता है क्योंकि वहां जगण आवश्यक होता है । चूंकि एँ का वैकल्पिक रूप इँ है अतः डा० आल्सडर्फ का अनुमान है कि इस प्रत्यय का स्वर हस्व है । डा० भायाणी का भी यही मत है । हमने एँ तथा एण के वैकल्पिक रूप 'ई' तथा " इण' को भी सम्पादित प्रति में ग्रहण किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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