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च उत्पन्नमहापुरिसचरिय
इसलिए सिर्फ उनकी जानकारीके लिए ही मूलमें न रखकर पादटिप्पणी में दिये हैं, और वह भी 'सगरचक्रवर्तिचरित' तक, बाद में वैसा प्रयत्न छोड़ दिया है ।
ह-भ, क-ग-य, ण-न और तन्द-य-अ- ऐसे बार बार आनेवाले वर्णोंके परिवर्तनोंक पाठभेदोंको उदाहरण के रूपमें ही प्रारम्भमें दे करके बादमें वैसे पाठान्तरोंका निर्देश हमने नहीं किया है । अभ्यासी वाचककी अनुकूलता के लिए 'आऊरिय' के बदले 'आपूरिय' जैसे सभी पाठोंका हमने यथास्थान निर्देश कर दिया है। इसके अलावा जहाँ जहाँ 'ण्ण' के बदले 'ह' मिला है वहाँ भी सभी पाठ लिये हैं; जैसे कि, 'दोणि' के बदले 'दोन्हि', 'गेलपण' के बदले 'गेलण्ह' इत्यादि । 'जे' संज्ञक प्रतिके सर्वथा निरर्थक और मिथ्या पाठान्तरोंका निर्देश करनेसे ग्रन्थका परिमाण पाँच-छः फॉर्म बढ़ जाता । वे पाठ केवल लेखककी भ्रान्ति अथवा उसके सम्मुख जो प्रति रही होगी उसकी अशुद्धिके कारण ही प्रतिमें आये होंगे; अतः उनका निर्देश नहीं किया है । इस बारेमें हमने यथोचित विवेक और सावधानी रखी है; अतः जहाँ-जहाँ मिथ्या पाठोंमें भी यत्किंचित् सन्देह प्रतीत हुआ है वहाँ मिथ्या पाठान्तरोंका भी निरपवाद रूपसे उल्लेख किया है ।
परिशिष्ट परिचय
इस ग्रन्थके अन्तमें आठ परिशिष्ट दिये गये हैं, जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
प्रथम परिशिष्ट (पृ. ३३७ से ३४७ )
इसमें प्रस्तुत ग्रन्थमें आये हुए विशेष नामोंका, प्रत्येककी पहचान और स्थानसूचकं पृष्ठांकके साथ, अकारादि वर्णक्रमसे निर्देश किया गया है ।
द्वितीय परिशिष्ट (पृ. ३४८ से ३५६ )
इसमें प्रथम परिशिष्टमें निर्दिष्ट नामोंको कुल पचहत्तर विभागों में बाँटकर वे विभाग अकारादि क्रमसे रखे गये हैं । इसके अनन्तर प्रत्येक विभागमें आनेवाले विशेषनाम उस उस विभागके नीचे दिये गये हैं ।
तृतीय परिशिष्ट (पृ. ३५७ से ३६० )
इसमें प्रस्तुत ग्रन्थमें आये हुए प्रसिद्ध एवं अप्रसिद्ध सभी देशीय शब्दोंका संग्रह, स्थानसूचक पृष्ठांकों के साथ, दिया गया है । इससे किंस शब्दका किस स्थान में किस रूपसे उपयोग हुआ है यह जाना जा सकता है । इसके अतिरिक्त 'पाइयसदमहण्णवो' (प्राकृत शब्दकोष ) में जिनका उल्लेख नहीं है वैसे प्राकृत शब्द भी इस ग्रन्थमेंसे चुनकर इस परिशिष्ट में सम्मिलित किये गये हैं। देशीय शब्दकी पहचान के लिए उस उस शब्द के आगे कोष्ठकमें (दे०) ऐसा लिखा है; जिन शब्दक आगे कोष्ठक में ' (०) ' का निर्देश नहीं है वे सब प्राकृत शब्द हैं। आज भी लोकभाषामें प्रयुक्त होनेवाले कतिपय शब्दोंके प्राचीन रूप इस परिशिष्ट मेंसे उपलब्ध हो सकेंगे; जैसे कि -अप्फरिय= आफरा (पेटमें होनेवाली बादी) चढ़ा हुआ, अड्डालिय = गु० अडवाळायेलं ( मिश्रित ), खडफडा = खटपट, चमेडा = चपेटा, गु० चमाट, आसपास = आसपास, इत्यादि । चतुर्थ परिशिष्ट (पृ. ३६१ )
प्रस्तुत ग्रन्थमें आये हुए अपभ्रंश पद्योंका संग्रह इस परिशिष्टमें है । एक स्थान पर गद्यात्मक अपभ्रंशमें अटवीवर्णन आता है; उसका भी अवतरण इस परिशिष्ट में किया गया है ।
पंचम परिशिष्ट (पृ. ३६२ )
इसमें ऋतुवर्णन तथा युद्ध, नगरप्रवेश, रूपमुग्ध-नारीसमूहव्यापार, चन्द्रोदय, सूर्योदय, नग, नगर आदिके वर्णनोंका निर्देश स्थानदर्शक पृष्ठांकके साथ किया गया है ।
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