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________________ प्रस्तावना -००९९०० 'ख' संज्ञक प्रति यह प्रति सूरिसम्राट् आचार्य श्री विजयनेमिसूरीश्वरजी शास्त्रसंग्रह, अहमदाबाद, के भण्डारकी है । धवलक्कक ( घोलका ) में राजा अर्जुनदेव तथा अमात्य मल्लदेवके समयमें खम्भातनिवासी पल्लीवालज्ञातीय लीलादेवीने अपने कल्याणके लिए वि. सं. १३२६ के श्रावण कृष्ण २ और सोमवार के दिन यह पोथी लिखवाई है' । ताड़पत्रके ऊपर लिखी गई इस प्रतिमें कुल ३७६ पत्र हैं । इनमेंसे पत्र १ से ११ तथा ३७५ ( कुल १२ पत्र) पीछेसे नये लिखाये गये हैं। यह प्रति अतिशुद्ध तो नहीं, परन्तु विशेष अशुद्ध भी नहीं कही जा सकती। इस प्रति परसे ही वि. सं. १६७३ के मार्गशीर्ष कृष्ण १३ और गुरुवार के दिन खम्भातनिवासी जोशी नानजीके पुत्र वश्रामके द्वारा लिखी गइ कागज़की प्रति भी उपर्युक्त भण्डारमेंसे उपलब्ध हुई है, जिससे प्रस्तुत 'सू' संज्ञक प्रतिकी वाचना अखण्ड सुरक्षित रह सकी है। प्रतिपरिचय इस प्रतिकी लम्बाई-चौड़ाई २०३" x २ है । प्रत्येक पत्रके प्रत्येक पृष्ठमें अधिक से अधिक आठ और कमसे कम तीन पंक्तियाँ लिखी मिलती हैं, परन्तु अधिकांशतः प्रत्येक पृष्ठ में चारसे छः पंक्तियाँ हैं । इसमें संवच्छरके बदले संवत्सर, पुरंधीके बदले पुरन्ध्री और गोरीके बदले गौरी जैसे संस्कृत शब्द भी कहीं कहीं उपलब्ध होते हैं, जिससे प्रतीत होता है कि प्रतिके लेखकको संस्कृत भाषाका भी ठीक-ठीक परिचय रहा होगा । लेखनकला में सिद्धहस्त कहे जा सके ऐसे लेखक द्वारा यह प्रति लिखी गई है । लिपि सुन्दर एवं सुवाच्य होने पर भी लेखकने लिपि-सौष्ठवका प्रदर्शन करने के लिए लेखनमें अपनी गति मन्द रखी हो ऐसा ज्ञात नहीं होता। प्रतिमें अनेक स्थानों पर 'द्ध' के बदले 'टू' और 'ड' बदले 'दृ' हो गया है तथा कहीं कहीं 'ल'का ण्ण, 'ण्ण'का ल्ल, 'ब'का घ अथवा य और 'व'का घ लिखा गया है, तो एकाघ स्थान पर 'झ'के बदले क भी हो गया है, इससे ज्ञात होता है कि लेखक आदर्श प्रति की लिपिसे अंशत: अनजान है। नकारके स्थानमें कार और जुलके स्थानमें जुवल भी अनेक स्थानों पर मिलता है । चार छः स्थानों पर गद्यपाठ में वर्णके द्विर्भावका एकीभाव भी उपलब्ध होता है; यथा, मोक्ख, सोक्ख, जोग्ग, पच्चूस एवं दुछंधके बदले मोख, सोख, जोग, पचूस एवं दुध आदि । मुद्रित पृ. २११ से ग्रन्थान्त (पृ. ३३५ ) तक 'जे' संज्ञक प्रतिके छः स्थानोंमें* तीनसे पाँच पंक्तिजितना तथा चार स्थानोंमें तो कुल मिलाकर साढ़े तीन फोर्म जितना पाठ अप्राप्य है । ये छोटे-बड़े पाठ सन्दर्भ प्रस्तुत 'सू' संज्ञक प्रतिमें ही उपलब्ध होते हैं। मतलब कि केवल इसी एकमात्र प्रतिसे ही चउप्पन्नमहापुरिसचरियकी वाचना पूर्ण रूपसे प्राप्त हो सकी है। ३ पृ. २८१ टि. १, २९२ टि. ४, ३०२ पाठोंके ऊपर हैं वे पाठ देखें । 5 मुद्रित ग्रन्थ में पृ. २२२ दि. ६, २२४ दि. ९, २२६ दि. ८, २२८ टि. ६, २३१ टि. २, २३४ टि. ४, २३५ टि. १,२३६ टि. १२, २३८ टि. ४ एवं ७, २३९ टि. ११, २४० टि. ४, २४२ टि. ८, २४७ टि. ३. २४८ टि. ३ एवं ५, २५२ दि. १०,२५३ टि. ८, २५७ टि. ५, Jain Education International १ देखो पृ. ३३५, दि. ६ । २ पृ. २११ दि. ११, २४३ टि. ७, २५२ दि. १, २६० टि. ९, २७० टि. १३ और २७६ टि. ७-इन छः पृष्ठों में निर्दिष्ट टिप्पणियाँ जिन मूल पाठोंके ऊपर हैं वे मूल पाठ देखें । टि. ३ और ३२६ टि. १३ इन चार पृष्ठोमें उल्लिखित टिप्पणियां भी जिन मूल २३३ टि. १२, २४१ टि. १७, २५९ दि. ३, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001442
Book TitleChaupannamahapurischariyam
Original Sutra AuthorShilankacharya
AuthorAmrutlal Bhojak, Dalsukh Malvania, Vasudev S Agarwal
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2006
Total Pages464
LanguagePrakrit, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size14 MB
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