________________
चतुर्थ परिशिष्टम् 'चउप्पन्नमहापुरिसचरिय'अन्तर्गतः अपभ्रंशसङ्ग्रहः
सयणु परियणु [सयणु परियणु] बंधुवाँग पि, भिच्चयणु सुहि सज्जणु वि घरि कलत्तु आणावडिच्छउं । अत्थुम्ह किल धरइ जाव ताव पुण्णेहि समग्गलु ॥
(अर्थप्राधान्ये पत्र-३ गा०३९)
पिय भणुकूली धरि सरइ, अण्णु भुवणि जसवडहउ वज्जइ । एत्य समप्पइ मोक्ख सुहूं, मोक्खे सोक्छु कि कवलेहि खज्जइ ! ।।
(कामप्राधान्ये पत्र-३ गा०४४)
संसारे असारए माणुसहो केण वि तेण सहुँ घडइ । जम्मडु अणिच्छए दइवहो केण वि उप्परि सुहरासिहे चडइ ॥
(कालनिवेदकगीतम् पत्र-१३ गा०४०)
भुवण भूसिउ [भुवण भूसिउ] कउ सुहालोओ, पह पयडिय दलियु तमो उइड मित्तो दोसंतकारओ। पडिबुझेवि ठाहि तुहं गुणणिहाण ! णियकज्जसजओ ॥
(सूर्योदये कालनिवेदकगीतम् पत्र-१३ गा०४८)
पयडरूवहो [पयडस्वहो] सिद्धमंतस्स, को भग्गए ठाइ तहो सयल लोउ णिदणह लग्गहो, पुच्छंतह अप्पणउं जाइआई बहुजणियस्वहो । जसु जोईसरु अप्पणिहि, भज्जइ किपि करेवि, तं फुडवियडकित्तगउं, इयरु किं जाणइ कोइ? ॥
(प्रहेलिका पत्र-१२० गा...)
वेसाहियउं अइ सिय केणइ अलद्धमज्झ, जुवइचरिउ जइ सिय अइकुडिलमग्ग, सालवाहणस्थाणि जइ सिय कइसयसंकुल, महासरु जइ सिय पोंडरीयसमाउल, वरणयरु जइ सिय दीहसालालकिय, बाहुबलिमुत्ति जइ सिय महासत्ताहिट्ठिय, अहिंस जइ सिय बहुमय, जिणपवयणु जह सिय बहुसावयाहिटिय, जिणवाणि जइ सिय सध्वसत्ताणुगय, कालिंदीजलप्पवाहु जइ सिय हरिबलमलियणाग[य] ।
(अटवीवर्णना पत्र-१३८-३९)
अलिउलचलपम्हउडवियासियसुमणदलो, उन्भडमहुमासो वि वियंभइ भूसियभुवणयलो । उभिण्णचूयणवपल्लवकिसलयसद्दलए, 'को पिउ बजेवि वञ्चइ?' कूविउ कोइलए ॥ जइ दइयविओए विवज्जइ ता कहे दुजरिउ, इय चिंतयंतो कलयंठिओ 'तुह तुह' उच्चरिओ। इय एव वियंभियमणहरबहुविहचञ्चरिओ, णिसुणंतु जणद्दणो लीलए वियरइ सच्चरिओ॥
(चर्चरीगीतम् पत्र १९१ गा.११३, १५४)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org