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________________ न्यायप्रवेशपञ्जिकाकी प्रशस्तिका उपर जो उल्लेख किया है उसके अंतमें ' श्रीश्रीचन्द्रसूरिका ही पूर्वावस्थामें पाश्चदेवगणि नाम था ' ऐसा जो उल्लेख है वह खुद ग्रन्थप्रणेताका न होकर तत्कालीन किसी शिष्य-प्रशिष्यादिका लिखा हुआ प्रतीत होता है । अस्तु, कुछ भी हो, इस उल्लेखसे इतना तो प्रतीत होता ही है कि-श्रीचन्द्राचार्य ही पार्श्वदेव गणि हैं या पार्श्वदेवगणी ही श्री श्रीचन्द्रसूरि हैं, जिनका उल्लेख धनेश्वराचार्यने सार्घशतकप्रकरणकी वृत्तिमें किया है । श्रीश्रीचन्द्रसरि का आचार्यपद श्रीश्रीचन्द्रसूरिका आचार्यपद किस संवतमें हुआ ? इसका कोई उल्लेख नहीं मीलता है, फिर भी आचार्यपदप्राप्ति के बादकी इनकी जो ग्रन्थरचनायें आज उपलब्ध हैं उनमें सबसे पहली रचना निशीथ चूर्णिविंशोदेशकव्याख्या है। जिसका रचनाकाल वि. सं. ११७४ है । वह उल्लेख इसप्रकार है सम्यक् तथाऽऽम्नायाभावादत्रोक्तं यदुत्सूत्रम् (:) । मतिमान्याद्वा किञ्चित् क्षन्तव्यं श्रुतधरैः कृपाकलितैः ॥१॥ श्रीशीलभद्रसूरीणां शिष्यैः श्रीचन्द्रसरिभिः । विंशकोद्देशकव्याख्या दब्धा स्वपरहेतवे ॥२॥ वेदावरुद्रसङ्ये १९७४ विक्रमसंवत्सरे तु मृगशीर्षे । माघसितद्वादश्यां समर्थितेयं रखौ बारे ॥३॥ निशीथचूर्णिविंशोद्देशकव्याख्याप्रशस्तिके इस उल्लेखको और इनके गुरु श्री धनेश्वराचार्यकृत सार्धशतकप्रकरणवृत्तिकी प्रशस्तिके उल्लेखको देखते हुए, जिसकी रचना ११७१ में हुई है और जिसमें श्रीचन्द्राचार्य नाम न होकर इनकी पूर्वावस्थाका पार्श्वदेवगणि नाम ही उल्लिखित है, इतना ही नहीं, किन्तु प्रशस्ति के ७३ पबमें जो विशेषण इनके लिये दिये हैं वे इनके लिये घटमान होनेसे, तथा खास कर पाटन-खेत्रवसी पाडाकी न्यायप्रवेशपञ्जिकाकी प्राचीन ताडपत्रीय प्रतिके अंतमें उनके किसी विद्वान शिष्य-प्रशिष्यादिने- “ सामान्यावस्थाप्रसिद्धपण्डितपाचेदेवगण्यभिधान-विशेषावस्थावाप्तश्रीश्रीचन्द्रसरिनामभिः" ऐसा जो उल्लेख दाखिल किया है, इन सब का पूर्वापर अनुसन्धान करनेसे इतना निश्चित रूपसे प्रतीत होता है कि- इनका आचार्यपद वि. सं. ११७१ से ११७४ के बिचके किसी वर्षमें हुआ है। ग्रन्थरचना ग्रन्थरचना करनेवाले श्रीश्रीचन्द्राचार्य मुख्यतया दो हुए हैं । एक मलधारगच्छीय आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरिके शिष्य और दूसरे चन्द्रकुलीन श्री धनेश्वराचार्यके शिष्य, जिनका पूर्वावस्थामें पार्श्वदेवगणि नाम था । मलधारी श्रीश्रीचन्द्रसूरिके रचे हुए आज पर्यंतमें चार ग्रन्थ देखनेमें आये हैं-१ संग्रहणी प्रकरण २ क्षेत्रसमासप्रकरण ३ लघुप्रवचनसारोद्धारप्रकरण और ४ प्राकृत मुनिसुव्रतस्वामिचरित्र । प्रस्तुत नन्दीसूत्रवृत्तिदुर्गपदव्याख्याके प्रणेता चन्द्रकुलीन श्रीश्रीचन्द्राचार्य की अनेक कृतियाँ उपलब्ध होती हैं, जिनके नाम, उनके अन्तकी प्रशस्तियोंके साथ यहाँ दिये जाते हैं (१) न्यायप्रवेशपञ्जिका और (२) निशीथचूर्णिविंशोद्देशकव्यास याके नाम और प्रशस्तियोंका उल्लेख उपर हो चूका हैं । (३) श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति । रचना संवत् १२२२ । प्रशस्ति कुवलयसङ्घविकासप्रदस्तमःप्रहतिपटुरमलबोधः । प्रस्तुततीर्थाधिपतिः श्रीवीरजिनेन्दुरिह जयति ॥१॥ विजयन्ते हतमोहाः श्रीगौतममुख्यगणधरादित्याः । सन्मार्गदीपिकाः कृतसुमानसाः जन्तुजाड्यभिदः ॥२॥ नित्यं प्राप्तमहोदयत्रिभुवनक्षीराब्धिरत्नोत्तमं, स्वयोतिस्ततिपात्रकान्तकिरणैरन्तस्तमोमेदकम् । स्वच्छातुच्छसिताम्बरैकतिलकं बिभ्रत् सदा कौमुदं श्रीमत् चन्द्रकुलं समस्ति विमलं जाड्यक्षितिप्रत्यलम् ॥३॥ तस्मिन् सूरिपरम्पराक्रमसमायाता बृहत्प्राभवाः सम्यग्ज्ञानसुदर्शनातिविमलश्रीपयखण्डोपमाः । सञ्चारित्रविभूषिताः शमधनाः सद्धर्मकल्पांहिपा विख्याता भुवि सूरयः समभवन् श्रीशीलभद्राभिधाः ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001441
Book TitleNandisutram
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorPunyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1966
Total Pages248
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Metaphysics, & agam_nandisutra
File Size24 MB
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