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________________ अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द ६४५ 'वस्तु' भी कहते हैं । हेमचन्द्र के मतानुसार रड्डा में 'मात्रा छन्द' के किसी भेद के साथ दोहा या उसके किसी भेद (अपदोहक, अवदोहक, आदि) का मिश्रण हो सकता है। अपभ्रंश जैन कवियों के यहाँ रडा छंद का प्रचुर प्रयोग मिलता है। हरिभद्र सूरि के 'सनत्कुमारचरिउ' और सोमप्रभ सूरि के 'कुमारपालप्रतिबोध' में रड्डा छंद निबद्ध हुआ है । अद्दहमाण के संदेशरासक में भी ६ रड्डा छंदों का प्रयोग मिलता है और विद्यापति की 'कीर्तिलता' में भी इस छंद में निबद्ध कई पद्य हैं । मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरम्परा में इस छन्द का प्रयोग केवल केशवदास की 'रामचंद्रिका' में मिलता है। 'छन्दमाला' में वे इसे 'नवपदी' छन्द कहते हैं और इसके केवल 'राजसेना' वाले भेद का संकेत करते हैं । भिखारीदास ने 'छन्दार्णव' में रडा के उक्त सातों भेदों का संकेत किया है। वे तालंकिनी रड्डा का निम्न उदाहरण देते हैं : बालापन बीत्यो बहु खेलनि । जुवा गई तियकेलनि । रह्यो भूलि पुनि सुतबित रेलनि ॥ जिय गल डारि जेलनि । अजहुँ समुनि तजि मूरख पेलनि ॥ काल पहूँच्यो सीस पर नाहिन कोऊ अड्ड । तजि सब माया मोह मद रामचरन भजु रड्ड ।। (छंदार्णव ८.२४) रड्डा का प्रयोग मध्ययुगीन हिंदी कविता में लुप्त हो गया है, वैसे हिंदी छन्दःशास्त्री इसका उल्लेख अपने ग्रंथो में जरूर करते देखे जाते हैं। १. आसां तृतीयपञ्चमेनानुप्रासेऽन्ते दोहकादि चेद्वस्तु रड्डा वा । - वही ५.२३ २. दे० याकोबी : सनत्कुमारचरित पृ० २१-२४, अल्सदोर्फ : कुमारपालप्रतिबोध पृ० ७०-७१ ३. दे० संदेशरसाक पद्य १८, १९, २४ आदि, कीर्तिलता पृ० ६, १०, १८ आदि पर । ४. छंदमाला २.३६-३७ ५. छंदार्णव ८.२२-२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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