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________________ अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द और एक षण्मात्रिक चतुष्पदी का 'संकर' (मिश्रण) कहा जा सकता है। 'स्वयंभू' की पारिभाषिक संज्ञाओं का प्रयोग करते हुए हम इसे 'ललयवती+मकरभुजा+मकरभुजा+गणद्विपदी का दुगना मिश्रण कह सकते हैं। डा० वेलणकर इसमें चार यतिखंडों की व्यवस्था के कारण ४ छन्दों का मिश्रण मानकर इसे संभवतः 'चतुर्भङ्गी' कहना चाहें और हमारी वर्णिक त्रिभंगी में ८, ८, १२, ६, ८ के यतिखंडों की व्यवस्था के कारण उसे 'पचभंगी' मानें । हमें यह जान पड़ता है कि मात्रिक त्रिभंगी में दशमात्रिक, अष्टमात्रिक, और षण्मात्रिक चतुष्पदियों के योग के कारण, तीन प्रकृति के छन्दों के मिश्रण के कारण, ही उसे 'त्रिभंगी' कहा गया है, भले ही वे संख्या में कितनी ही क्यों न हों । इसी तरह वर्णिक त्रिभंगी में अष्टमात्रिक, द्वादशमात्रिक और षण्मात्रिक चतुष्पदियों के योग के कारण, तीन प्रकृति के छन्दों के मिश्रण के कारण, उसे भी 'त्रिभंगी' ही कहा गया है, यद्यपि मिश्रित छन्दों की संख्या मात्रिक त्रिभंगी से यहाँ भिन्न है। यह विवेचन दोनों प्रकार की त्रिभंगियों के ऐतिहासिक विकासक्रम और इनके नामकरण का संकेत करता है। ऐतिहासिक विकासक्रम की दृष्टि से इनका विवेचन 'कुंडलिया' और 'छप्पय' जैसे मिश्रित छन्दों के बाद किया जाना चाहिए था, किन्तु जहाँ पुरानी और मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरम्परा के कवि और छन्दःशास्त्री 'कुण्डलिया' और 'छप्पय' की मिश्रित प्रकृति से बखूबी वाकिफ थे; वहाँ 'त्रिभंगी' की मूल मिश्रित प्रकृति से अनभिज्ञ थे। उनके यहाँ त्रिभङ्गी छन्द पूरा एक इकाई के रूप में ही आया था, वे इसे किन्हीं अनेक छन्दों के मिश्रण से बना नहीं मानते थे । फलतः यहाँ त्रिभंगी छन्द शुद्ध चतुष्पदी के रूप में ही माना जाता रहा है। इस दृष्टि से 'त्रिभंगी' को मध्ययुगीन हिन्दी काव्यपरम्परा के परिप्रेक्ष्य में चतुष्पदी ही मानना विशेष समीचीन है, डा० वेलणकर की तरह षोडशपदी नहीं । ठीक यही बात पद्मावती, दुर्मिला, आदि छन्दों के बारे में लागू होती है, जिन्हें डा० वेलणकर द्वादशपदियाँ मानते हैं, किन्तु हिन्दी काव्यपरम्परा के संबंध में हम उन्हें चतुष्पदी छन्द ही मानना चाहेंगे । ४० मात्रा वाली मात्रिक त्रिभंगियाँ कहीं कहीं सूर और तुलसी के पदों में भी मिलती है। तुलसी की 'गीतावली' में 'त्रिभंगी' का गीत के अंतरों के रूप में प्रयोग हुआ है। यहाँ १०, १०, १०, १० की यति पाई जाती है। हम कुछ ही अन्तरों को उद्धृत कर रहे हैं। मजे की बात तो यह है कि तुलसी ने यतिखंडों के अन्त में 'अनुप्रास' (तुक) की भी योजना की है। निम्न 'पद' में पहली पंक्ति 'टेक' की है, शेष आठ पंक्तियाँ त्रिभंगी के चार चरणों की हैं । देखु सखि ! आजु रघुनाथ सोभा बनी ।। नील-नीरद-बरन, वपुष भुवनाभरन, पीत अंबर धरन, हरन दुति दामिनी ॥ सरजु मज्जन किए, संग सज्जन लिए, हेतु जन पर हिये, कृपा कोमल धनी ॥ सजनि आवत भवन, मत्त गजवर-गवन, लंक मृगपति ठवनि, कुँवर कोसलधनी ।। घन चिक्कन कुटिल, चिकुर विलुलित मृदुल, करनि बिवरत चतुर, सरस सुषमा जनी ॥२ उक्त उदाहरण में मात्रिक-भार त्रिभंगी के ही समान है, किंतु यतिभेद के कारण इसकी लय और गति में स्पष्ट ही प्राकृतपैंगलम्, केशवदास और भिखारीदास वाली त्रिभंगी से भिन्नता दिखाई पड़ेगी । इस संकेत से हमारा तात्पर्य यह है कि पुरानी छन्दः परंपरा के कई छंद मध्ययुगीन हिंदी भक्त कवियों के पदों में भी सुरक्षित हैं। मदनगृह १९४. प्राकृतपैंगलम् के अनुसार 'मदनगृह' छंद के प्रत्येक चरण में ४० मात्रायें होती हैं । इस छंद की गणप्रकिया में 'जगण' का निषेध है और पादादि में दो लघु मात्रा और पादांत में 'गुरु' (5) की व्यवस्था नियत है। मध्य में प्रायः जगणेतर चतुर्मात्रिक गणों की रचना की जाती है। इस प्रकार इसकी गणव्यवस्था यों है :- ॥ ९ चतुर्मात्रिक, 5 (=४० मात्रा) । प्राकृतपैंगलम् के लक्षणपद्य में यतिव्यवस्था का कोई संकेत नहीं है; किंतु यह व्यवस्था १०, ८, १४, ८ है और नियत रूप से उदाहरणपद्य में देखी जा सकती है। प्रथम-द्वितीय यतिखंडों और तृतीय-चतुर्थ यतिखंडों के अंत में क्रमश: 'प्रास' (तुक) की व्यवस्था की गई है । जैसे, १. इनका परिचय दे० अनुशीलन $ १५० २. गीतावली उत्तरकांड पद ५ ३. प्रा० पैं० १.२०५-२०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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