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अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द
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रण महँ' आदि पाठ लेने पर छन्द में मात्रान्यूनता का दोष आ जायगा । दामोदर के वाणीभूषण में इसका लक्षण २५ मात्राओं के २० वर्णों की व्यवस्था नहीं मिलता। उनके मतानुसार इसके आदि में षट्कल गण और अंत में रगण (5I5) होना जरूरी है, बीच के गणों की व्यवस्था कैसी भी हो सकती है। इस छन्द में १२, १३ मात्रा पर यति पाई जाती है। दामोदर के लक्षण और उदाहरण दोनों में २० अक्षर (५ ग, १५ ल) वाली व्यवस्था का पालन नियमतः नहीं मिलता यह निम्न उद्धरणों से स्पष्ट हो जायगा ।
षट्कलमादौ विरचय शेषे रगणविभूषितं, मध्ये नियमविहीनं द्वादशके यतिसंगतम् । फणिपतिपिंगलवर्णितं कविकुलहृदयरञ्जनं पञ्चाधिकविंशतिकलवृत्तमिदं गगनाङ्गकम् ॥ (वाणीभूषण १.८६) गिरिवरतनयाकुचरसपातविमुद्रितलोचने निद्राश्वसितसमीरणदूरदुरितभयमोचने । अतिबलविचलदसुरबलतारितसुरवरनायके, अनुगतजनतारिणि मम रतिरस्तु किल विनायके ॥
(वाणीभूषण १.८७) गुजराती, मराठी छन्दःपरम्परा में यह छन्द नहीं मिलता और केशवदास की 'छन्दमाला' और 'रामचंद्रिका' दोनों में यह नदारद है । ऐसा जान पड़ता है, यह विशेष प्रचलित छन्द नहीं रहा है । भिखारीदास से पहले केवल श्रीधर कवि ने इसका संकेत किया है और वे इसका लक्षण प्राकृतपैंगलम् के अनुसार ही निबद्ध करते हैं। वाणीभूषण के अनुसार नहीं । भिखारीदास भी इस छन्द में पाँच गुरु और अन्त में रगणव्यवस्था का होना जरूरी मानते हैं। उनका स्वनिर्मित उदाहरण निम्न है :
निरसि सौतिजन हृदयनि रहै गरउ को ढंग ना, पटतर हिय सतकवि के मन को मिटै फलंगना । बदन उघारि दुलहिया छनकु बैठि कढ़ि अंगना, चन्द पराजय साजहि लजित करहि गगनंगना ॥
(छन्दार्णव ५.२१०) अपभ्रंश काल में २५ मात्रा के अनेक छंद प्रचलित थे, इनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध 'कोकिल' (रासक) छन्द है, जिसमें 'गगनांग' की तरह ही अंत में ।ऽ (ल ग) होना जरूरी है, किंतु उसकी मात्रिक गणव्यवस्था ४, ५, ५, ४, ४, ल, ग है । इस छन्द का जिक्र हेमचन्द्र ने किया है। इस छंद के उदाहरण को देखने से पता चलता है यहाँ प्रत्येक चरण के अंत में 'रंगण' (515) की व्यवस्था भी है, यद्यपि लक्षण में केवल 'लग' (13) ही पादांत में विहित है।
हंसि तहारओ गइविलासु पडिहासइ रित्तओ, कोइलरमणिइ तुहवि कंतु कुंठत्तणु पत्तओ । विरहय कंकेल्लिह दोहल संपइ पूरंति अ, जं किर कुवलयनयण एह हिंडइ गायंति अ ।'
(छन्दोनुशासन ५.८) (हे हंसि, तुम्हारा गतिविलास रीता प्रतिभासित हो रहा है; हे कोकिलरमणि, तुम्हारा कंठ भी कुंठत्व को प्राप्त हो गया है; क्योंकि विरह के गान से और पादाघात से अशोक का दोहद पूर्ण कर रही कुवलयनयना (नायिका) यहाँ बन में घूम रही है और गा रही है।)
उक्त छन्द के प्रथम चरण में मैंने (तहारओ' के 'आ' को एकमात्रिक माना है, अन्यथा उक्त चरण में मात्रायें २६ हो जायँगी । प्राकृतपैंगलम् वाला 'गगनांग' छन्द उक्त 'कोकिल' (तृतीय रासक) से किसी न किसी तरह संबद्ध अवश्य होना चाहिए । दोनों एक ही मात्रिक प्रस्तार में गेय छन्द के प्ररोह हैं ।
गगनांग छन्द मध्ययुगीन एवं आधुनिक हिंदी कविता में प्रायः अप्रयुक्त रहा है। इस छन्द की यति कुछ लोगों ने १६, ९ भी मानी है, जो परंपरागत यति-व्यवस्था से भिन्न है । गदाधर की 'छन्दोमंजरी' में जो बहुत परवर्ती ग्रंथ है, १. गुरु लघु ठौरन नेमु वरन वर वीस सु कीजिये, सुभ पच्चीस कला तहँ सरस गनि यगन दीजिये ।
पंद्रह लघु गुरु पाँच चरन प्रति सुद्धि विचारिये, या विधि गगनक छन्द चारि पग सविधि सुधारिये ॥ - छन्दविनोद २.२१ २. सौ कल चारि पचीस को, छन्दजाति गगनंग । पग पग पाँचै गुरु दिये, अतिसुभ कह्यो भुजंग ।। - छंदार्णव ५.२०९ ३. च पाचाल्गा कोकिलः । चतुर्मात्रः पञ्चमात्रद्वयं चतुर्मात्रद्वयं लघुगुरु च कोकिलः । - छन्दोनुशासन ५.९ ४. इस पद्य के तृतीय चतुर्थ चरणों का पादांत 'अ' गुरु (5) माना जायगा । ५. पुत्तूलाल शुक्ल : आधुनिक हिंदी काव्य में छन्द-योजना पृ० २९१
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