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संस्कृत, प्राकृतापभ्रंश और हिंदी छन्दः शास्त्र
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प्रा०
प्रा. पै० में 'मात्रा' छंद का स्वतन्त्र रूप से कोई संकेत नहीं है, किंतु 'मात्रा' छन्द के अनेक प्रकारों के साथ 'दोहा' छंद को मिलाकर बनाये गये 'रड्डा' छंद के भेदों का वर्णन पाया जाता है। संभवतः प्रा० पै० के समय तक 'मात्रा' के शुद्ध रूप का प्रयोग कम हो चला था, किंतु दोहे के साथ उसके मिश्रित 'नवपदी' वाले रूप के विविध प्रकार प्रचलित थे। भिखारीदास ने भी अपने 'छन्दार्णव' मं रङ्गा के इन (मात्रा दोहा वाले) विविध भेदों का संकेत किया है।" षट्पदी प्रकरण में कविदर्पणकार ने 'घत्ता' के छः प्रकारों का उल्लेख किया है, जिनमें से प्रत्येक षट्पदी का पूर्वार्ध तथा उत्तरार्ध (तीन तीन पाद) समान होते हैं ये क्रमश: (१०, ८, १३), (१२, ८, १३) (८, ८, ११) (१०, ८, ११), (१२, ८, ११), (१२, ८, १२) है पै० में इनमें से केवल प्रथम 'घत्ता' का संकेत मिलता है, जबकि वहाँ ११, ७, १३ वाले अन्य भेद 'घत्तानंद' का भी उल्लेख है, जो कविदर्पण में नही है । कविदर्पणकार ने 'घत्ता' को षट्पदी माना है, द्विपदी नहीं तथा उनके प्रथम द्वितीय (a, b) तृतीय षष्ठ, (c, f) तथा चतुर्थ - पंचम (d, e), चरणों में क्रमशः परस्पर 'तुक' (अनुप्रास) मानी है। इसी घत्ता को 'धुवा' भी कहते हैं, तथा कडवक के अंत में निबद्ध होने पर वही 'छट्टणिका' भी कहलाता है। इसी प्रकरण में षट्पद मिश्रछन्द का भी संकेत किया है, जो वस्तुवदनादि चतुष्पदी के साथ उल्लाला जोड़ कर बनाया जा सकता है। इस 'षट्पद' छंद को 'सार्थच्छन्द' या 'काव्य' भी कहा गया है। टीकाकार ने इसके कई भेद बताये हैं:- १. वस्तुक :- १. वस्तुक + उल्लाला २. रासावलय + कुंकुम, ३. रसावलय कर्पूर ४. १/२ वस्तुवदनक + १/२ रासावलय + कुंकुम ५. १ / २ वस्तुवदनक + १/२ रासावलय + कर्पूर, ६. १ / २ रासावलय + १/२ वस्तुवदनक + कुकुंम ७ १/२ रासावलय १/२ वस्तुवदनक कर्पूर ८. वदनक + कर्पूर ८. वदनक कुंकुम ९. वदनक कर्पूर। स्पष्ट है, ये सब भेद विविध प्रकारां के मेल से बनाये गये हैं। प्राकृतपैंगलम् में इसका केवल एक ही रूप पाया है:रोला + उल्लाला ।
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सप्तपदी प्रकरण में केवल एक भेद पाया जाता है, फुलक, जो मात्रा' (पाँच चरण) तथा उल्लाला (दो चरण) का मिश्रच्छन्द है। हेमचन्द्र में इस प्रकार का मिश्रछन्द नहीं मिलता। अष्टपदी प्रकरण में दो चतुष्पदियों के विविध मिश्रित छंदों का विवरण दिया गया है। दो छंदों के मिश्रित छंद द्विभंगी' कहलाते हैं। अष्टपदी में एक शुद्ध छंद का भी संकेत किया गया है। यह छंद है, श्रीधवल (प्रथम, तृतीय, पंचम, सप्तम चरण ४४३+२ मात्रा, द्वितीय, चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम चरण ४x२= मात्रा) इस छंद का उल्लेख हेमचन्द्र ने भी किया है। इस छंद में विषम सम चरणों में अर्थात् प्रथम द्वितीय (ab), तृतीय- चतुर्थ (c d) इस कम से 'अनुप्रास' (तुक) पाया जाता है। हेमचंद्र ने बताया है कि इसे कुछ लोग 'वसंतलेखा' भी कहते हैं।
नवपदी के अन्तर्गत मात्रा दोहा वाले 'रा' छंद का उल्लेख है, जिसे कुछ विद्वान् 'वस्तु' भी कहते हैं। दशपदी में दोहा (चार चरण) घत्ता (छ चरण) के मिश्रित छंद का उल्लेख है, जो 'द्विभंगी छंद है। एकादशपदी 'त्रिभंगी छंद है, जिसमें तीन छंदों का मिश्रण पाया जाता है। कविदर्पणकार ने इसमें उल्ला (दो चरण) मात्रा (पाँच चरण)
दोहा
( चार चरण) के मिश्र (strophe ) भेद का उल्लेख किया है। द्वादशपदी भी 'त्रिभंगी छंद है, जो तीन चतुष्पात् छंदों के २. भिखारीदासः छन्दार्णव ८.२२-२४
१. प्राकृतपैंगलम् १.१३३-१४३.
३. दस अट्ठतेरसहि वा इह बारस अट्ठतेरसहिं अहवा ।
अगारसहिं दसट्टएकारसहिं वावि ॥
बारस अगारसहिं वा रविवसुरवीहि य कलाहि ।
तिसु तिसु पएसु कमसो दलजुयले बहुवि भत्ता ॥
एसा कडवयनिणे दृणिया इत्थ पढमवियाण
तहयच्छ्द्वाण चउत्थपंचमाणं च अणुपासो ॥ ( कविदर्पण २.२९ ३१ )
४. वत्थुवयणाइ उल्लाल संजुयं छप्पयं दविढछंदं ।
कव्वं वा; (कवि० २.३३)
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५. अह मत्ताउल्लालयसंगया फुल्ला ।। ( २.३३)
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६. विसमेसु टतिगकेहिं समेसु टदुगणेण चसु सिरिधवलं विसमसमपयणुपासं...... ॥ (२.३४) जे चिदी सम चौ श्रीधवलम् ॥ ( ५.३३) तत्र धवलेषु मध्ये
६.
चद्वयं यत्र तच्छ्रीधवलम् । वसन्तलेखेत्यन्ये (छन्दोनुशासन ५-३३)
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धवले विषमेषु पादेषु चत्रयं द्विमात्रश्चैकः समेषु पादेषु
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