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प्राकृतपैंगलम्
है। स्वयंभू ने अपभ्रंश छंदों में द्विपदियों तथा त्रिपदियों को उतना महत्त्व नहीं दिया है; जितना अन्यत्र मिलता है। साथ ही मिश्र अपभ्रंश छंदों में स्वयंभू ने केवल 'रड्डा' (४.२५) का ही संकेत किया है। स्वयंभू के ग्रंथ का विशेष महत्त्व इसलिये भी हैं कि इसमें अनेक प्राकृत कवियों द्वारा प्राकृतभाषानिबद्ध वर्णिक छंदों के उदाहरणों में 'अन्त्य यमक' पाया जाता है, जो अपभ्रंश छन्दःपरम्परा की खास विशेषता माना जाता है। डा० वेलणकर का अनुमान है कि इन प्राकृत कवियों
पंडित-मंडली के न होकर साधारण समाज के व्यक्ति जान पड़ते हैं । इन सभी दृष्टियों से 'स्वयंभूच्छन्दस्' का प्राकृतापभ्रंश साहित्य तथा छन्दःशास्त्र के अध्येता के लिये कम महत्त्व नहीं है। (४) राजशेखरका छन्दःशेखर
१५१. यह ग्रन्थ संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश तीनों छन्द:परम्पराओं का विवेचन उपस्थित करता है । इसके प्रथम चार अध्यायों में संस्कृत तथा प्राकृत छंदों का विवरण दिया गया है तथा अंतिम पाँचवें अध्याय में अपभ्रंश छन्दों का विवेचन है । 'छन्दःशेखर' की रचना किसी जैन राजशेखर के द्वारा की गई है, जो ठक्कुर परिवार के यश का प्रपौत्र, लाहट का पौत्र तथा दुद्दक का पुत्र था । इसकी माता का नाम नागदेवी था । राजशेखर के इस ग्रन्थ की भोजराज ने बड़ी कद्र की थी। संम्भवतः ये भोजदेव धारानरेश ही थे और इस तरह राजशेखर का समय १००५ ई० से १०५४ ई० के बीच पड़ता है, जो भोज का शासनकाल है। 'छंद:शेखर' के प्रकाशित अंश का आधारभूत हस्तलेख सं० ११७९ में चित्तौड़ (चित्रकूट) में लिखा गया था । अतः यह ग्रंथ वैसे भी ११ वीं शती का सिद्ध होता है। ये राजशेखर बाद के राजशेखरसूरि से भिन्न हैं।
राजशेखर का 'छन्द:शेखर' निश्चित रूपसे हेमचन्द्र के 'छन्दोऽनुशासन' से पुराना है, तथा इसकी रचना पर स्वयम्भू के 'स्वयम्भूच्छन्दस्' का पर्याप्त प्रभाव परिलक्षित होता है। छन्दों का वर्गीकरण तथा विवरण स्वयंभू के अनुसार ही है तथा कहीं कहीं तो राजशेखर के पद्य स्वयंभू के ही प्राकृत छन्दों का संस्कृत उल्था जान पड़ते हैं । छन्दःशेखर में पद्य संख्या ७-२६ तक प्रायः उन्ही छंदों का विवरण पाया जाता है, जो स्वयम्भूच्छन्दस् के चतुर्थ अध्याय में वर्णित है। इनमें दो नये छंदों को जोड़ दिया गया है; वस्तुवदनक (पद्य संख्या १७) तथा भ्रमरधवल (पद्य संख्या २४)। इसके बाद पद्यसंख्या ३० से ३४ तक षट्पदजाति का प्रकरण है, तथा पद्यसंख्या ३७ से १६४ तक अन्तरार्धसमा या अर्धसमा चतुष्पदी छन्दों का विवरण दिया गया है, जिसमें ११० अर्धसम मात्रिक छंदों का वर्णन है। तथा उनके "ललित' भेद भी तत्संख्यक है। तदनन्तर पद्यसंख्या १६५ से १७४ तक सर्वसमा चतुष्पदी का प्रकरण है, जिसमें शशांकवदना (१० मात्रा ४ + ४ + २), मारकृता (११ मात्रा, ४ + ४ + ३), महानुभावा (१२ मात्रा, ६ + ४ + २ अथवा ४ + ४ + ४), अप्सरोविलसित (१३ मात्रा, ६ + ४ + ३ अथवा ४ + ४ + ५), गन्धोदकधारा (१४ मात्रा, ५ + ५ + ४ अथवा ४ + ४ + ४ + २), पारणक (१५ मात्रा, ४ + ४ + ४ + ३ अथवा ६ + ४ + ५), पादाकुलक (१६ मात्रा, मात्रिकगण अनियमित), संकुलक (१६ मात्रा, ६ + ४ + ४ + २), पद्धडिका (१६ मात्रा, ४ + ४ + ४ + ४), तथा रगडाध्रुवक (१७ मात्रा, ४ + ४ + ४ + ५ अथवा ६ + ४ + ४ + ३), केवल इन दस सममात्रिक चतुष्पात् छंदों का विवरण दिया है। इसके बाद पद्य संख्या १७५ से २२४ तक २८ मात्रा से लेकर ४० मात्रा तक की बड़ी द्विपदियों का विवरण दिया है। ४० से ऊपर की द्विपदी के पक्ष में राजशेखर नहीं है। अन्त में ४ से ९ मात्रा वाली दस छोटी द्विपदियों का विवरण दिया गया है। विजया (४ मात्रा), रेवका (५ मात्रा), द्विपदीगणा (६ मात्रा), स्वरद्विपदी (७ मात्रा, ४ + ३), अप्सरा (७ मात्रा, ५ + २),
१. यस्यासीत्प्रपितामहो यस इति श्रीलाहटस्त्वार्यक
स्तातष्ठकुरदुद्दकः स जननी श्रीनागदेवी स्वयम् । स श्रीमानिह राजशेखरकविः श्रीभोजदेवप्रियं
छन्दःशेखरमाहतोऽप्यरचयत्प्रीत्यै स भूयात्सताम् ।। - Journal. B.B.R.A.S. (1946) p. 14. २. एवं दशोत्तरशतं ललिताभिधानैर्भेदैरिहान्तरसमासमाऽपि तद्वत् ।।
किंतु द्वितीयचरणः प्रथमेन तुल्यस्तुर्यस्तृतीयसदृशोऽर्धसमासु कार्यः ॥ [५.१६२] ३. सर्वसमा दशधैषा कथिता । - (५-१७५). ४. ह्यतः परं सूरयो न ध्रुवकाणि योजयन्ति । - (५.२२४).
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