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कर्ता
पद-विचार
४७१ 'हँ' रूप के सादृश्य पर अपादान ए० व० 'हु' को विकसित अपादान ब० व० का 'हुँ' रूप मानते हैं। यह मत ज्यादा ठीक ऊँचता है । इस तरह अप० में सम्प्रदान-अपादान-संबंध ब० व० के चिह्न ये हैं :- "हं, "हँ, "ह, हु, हुँ; शून्य रूप; इनमें शून्यरूपों का संकेत टगारे ने १२०० ई० के लगभग की अपभ्रंश में किया है ।।
प्राकृतपैंगलम् की भाषा में इस कारक में निम्न रूप पाये जाते हैं :(१) णं वाले रूप (जो प्राकृत रूप हैं); (२) हँ-ह वाले रूप । (१) णं वाले रूप शुद्ध प्राकृत रूप हैं, इसके उदाहरण निम्न हैं :
गणाणं (१.१५) < गणानां, पंकेरुहाणं (२.२०१) < पंकेरुहयोः (सम्प्रदानार्थे, कर्पूरमंजरी का उदाहरण), बुहाणं (१.११) < बुधानां, लोआणं (२.१७४) < लोकानां । .
(२) -हँ -ह वाले रूपों के उदाहरण निम्न हैं :ट्ठडढाणह (१.१२) < टठडढाणानां, मेच्छह(-के) (१.९२) < म्लेच्छानां ।
८६. उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर अकारांत शब्द रूप प्रा० पैं० की भाषा में इस प्रकार पुनर्निर्मित किये जा सकते हैं। ए० व०
ब० व० पुत्तो (प्रा०), पुत्तु, पुत्त, (पूत)
पुत्ता, पुत्तह, (पुत्ते), पुत्त, (पूत) कर्म पुत्तं (प्रा०), पुत्तु, पुत्त, (पूत)
पुत्ता, पुत्तह, (पुत्ते), पुत्त, (पूत) करण
पुत्तेण (प्रा०), पुर्ते-पुत्ते, पुत्तहि, पुत्त, (पूत) पुत्तेहिँ, पुत्ते, पुत्त, (पूत) सम्प्रदानसंबंध पुत्तस्स, (प्रा०) पुत्तह, पुत, (पूत) पुत्ताणं (प्रा०), पुतहँ, पुत्त, (पूत) अधिकरण पुत्ते, पुत्तम्मि (प्रा०), पुत्ते, पुत्तहि, पुत्तह, पुत्तेसु-सुं (प्रा०), पुत्तहिँ, पुत्तह, पुत्त, (पूत)
पुत्त, (पूत) संबोधन अरे, रे, हे पुत्त, (पूत)
अरे, रे, हे पुत्ता, पुत्ते, पुत्त, (पूत) यहाँ कोष्ठक का 'पूत' जो सभी विभक्तियों के ए० व०, ब० व० रूपों में पाया जाता है; प्रा० पैं० की भाषा के समय के कथ्य रूप का संकेत करता है, जहाँ व्यंजन द्वित्व के पूर्ववर्ती स्वर को दीर्घ बनाकर उसे सरल कर दिया गया है, पुत्रः > पुत्तो > पुत्तउ > पुत्त > पुत । यद्यपि प्रा० पैं० में ऐसे रूप बहुत कम मिलते हैं, किंतु इन रूपों का सर्वथा अभाव नहीं है। जैसा कि हम देख चुके हैं, प्रा० पैं० की पुरानी पश्चिमी हिंदी (या अवहट्ठ) में शून्य रूप (जीरो फोर्म) या प्रातिपदिक रूप प्रायः सभी कारकों के ए० व०, ब० व० रूपों में पाये जाते हैं। ऊपर के 'पुत्त' (पूत) इसी का संकेत करते हैं। जहाँ कोष्ठक में प्रा० लिखा है, वे प्राकृत के रूप हैं तथा प्रा० पैं. की भाषा की निजी प्रवृत्ति नहीं हैं। शेष रूप अपभ्रंश अवहट्ठ में समान रूप से प्रचलित हैं। विशेषण :
८७. प्राचीन भारतीय आर्य भाषा तथा म० भा० आ० में संज्ञा एवं विशेषण में कोई खास फर्क नहीं दिखाई देता । उनके रूप प्रायः संज्ञा रूपों की तरह ही चलते हैं तथा विशेषण लिंग, वचन, विभक्ति में विशेष्य का ही अनुकरण करता है। अपभ्रंश में भी यही स्थिति पाई जाती है। न० भा० आ० में आकार केवल दो विभक्तियाँ (मूल विभक्तिरूप तथा तिर्यक् रूप) एवं दो लिंग (पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंग) के बच जाने के कारण विशेषण के विविध रूप नहीं नज़र आते । नियमतः विशेष्य के अनुसार उनका सविभक्तिक रूप नहीं मिलता, किंतु यदि विशेष्य स्त्रीलिंग है तो विशेषण के साथ स्त्रीप्रत्यय जोड़ दिया जाता है, तथा यदि विशेष्य तिर्यक् रूप है तो विशेषण के साथ भी तिर्यक् चिह्न (एँ > ए) जोड़
8. Tagare : $ 86, p. 148 २. ibid : p. 150
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