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पद- विचार
'पच्चासि पहूओ पुव्वपसिद्धो य मिच्छदेसोत्थि । तह विसए संभूओ आरद्दो मीरसेणस्स ॥ तह तणओ कुलकमलो पाइयकव्वेसु गीयविसयेसु । अद्दहमाणपसिद्धो संनेहरासयं रइअं || (संदेश० ३-४) किन्तु 'संनेहयरासय' की भाषा में ये रूप नगण्य है तथा इस दृष्टि से प्राकृतपैंगलम् की भाषा अधिक रूढिवादी जान पड़ती है । पर हम बता चुके हैं कि उदाहरण पद्यों की भाषा का अधिकांश संदेशरासक की भाषा से आगे बढ़ी प्रवृत्ति का संकेत करता है और यही प्रा० पैं० की सच्ची प्रकृति है । उक्तिव्यक्तिप्रकरण की भाषा में प्राकृत रूप नहीं मिलते । यहाँ प्राचीन न० भा० आ० वाले प्रातिपदिक रूप तथा शौरसेनी अपभ्रंश के अवशेष 'उ वाले रूप ही मिलते हैं । (दे० डा० चाटुर्ज्या $ ५९) वर्णरत्नाकर में शौरसेनी अपभ्रंश की इस विभक्ति का निशान नहीं मिलता। (दे० चाटुर्ज्या (भूमिका) (२३) इस तुलनात्मक अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रा० पैं० की भाषा, जिस रूप में इन उदाहरणों में मिलती है, प्राचीन पूरबी हिन्दी की कृतियों - उक्तिव्यक्ति और वर्ण - रत्नाकर - से अधिक रूढिवादी तथा 'आर्केक' दिखाई देती है। किन्तु ऐसा जान पड़ता है कि यह रूढिवादिता उसके छन्दोबद्ध होने के कारण हैं, कथ्य भाषा में इतनी रूढिवादिता नहीं रही होगी ।
संबोधन ए० व०
७८. प्रा० भा० आ० में संबोधन ए० व० में निम्न रूप पाये जाते हैं
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(१) शून्य रूप (जीरो), अकारांत तथा हलंत शब्दों में; (२) पदांत स्वर का ह्रस्वीकरण; स्त्रीलिंग के ईकारांत, ऊकारांत शब्दों में, (३) - ए; स्त्रीलिंग आकारांत तथा पुल्लिंग स्त्रीलिंग इकारांत रूपों में, (४) - ओ; पु० स्त्री० उकारांत रूपों में । म० भा० आ० की प्रथम स्थिति (प्राकृत) में संबोधन ए० व० में निम्न रूप पाये जाते हैं :- (१) शून्य रूप, प्रायः सभी तरह के शब्दों में; (२) - आओ रूप, (आ, महाराष्ट्री- अर्धमागधी दोनों में 'पुत्ता', ओ केवल अर्धमागधी में, पुतो ये रूप केवल अकारांत शब्दों में पाये जाते हैं ।) (३) पदांत स्वर का दीर्घीकरण (ये इकारांत उकारांत शब्दों के वैकल्पिक रूप हैं, अग्गि-अग्गी, वाउ वाऊ । दे० पिशेल ६ ३७७-७८) । (४) – ए रूप, ये आकारांत स्त्रीलिंग शब्दों के वैकल्पिक रूप हैं :- माला - माले। अपभ्रंश में भी प्राकृत वाले रूप पाये जाते हैं, किंतु यहाँ इकारांत - उकारांत शब्दों के रूपों में पदांत स्वर का दीर्घीकरण नहीं पाया जाता अपितु शुद्ध प्रातिपदिक रूप ही पाये जाते हैं। अकारांत रूपों में यहाँ आ, उ तथा शून्य रूप पाये जाते हैं, इनमें आ वाले रूपों की संख्या शून्य रूपों से अधिक नहीं है, फिर भी वे बहुलता से पाये जाते हैं। उ वाले रूप अपभ्रंश में परवर्ती जान पड़ते हैं। वैसे दोहाकोष में –इए, ओ, - ऐ, - ए - ये वाले रूप भी मिलते हैं। इस विवेचन से यह जान पड़ता है कि संबोधन ए० व० में शून्य रूप सदा प्रमुख रहे हैं । प्रा० पैं० की भाषा में ये रूप ही प्रचलित हैं, प्राकृत रूपों में यहाँ पदांत ई के ह्रस्व वाले रूप भी मिलते हैं, जिन्हें परिनिष्ठित प्राकृत पद्यों से इतर स्थलों पर शुद्ध प्रातिपदिक ही माना जायगा, क्योंकि अप० में आकर ईकारांतऊकारांत स्त्रीलिंग शब्दों के रूप वस्तुतः ह्रस्वस्वरांत स्वतः हो गये थे ।
संबोधन ए० व० के कुछ उदाहरण ये हैं
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काह (१.९) < कृष्ण, कासीस (१.७७) < काशीश,
गुज्जर (२.१३० ) < गुर्जर, गोड (२.१३२) < गौड, पिअ (१.१३६) प्रिये, पहिअ (२.१९३) < पथिक, सहि
(२.२०५) सखि, सुमुहि (१.१८८) - सुमुखि, तरलणअणि (२.७२) < तरलनयने,
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गअवरगमणि (१.१५८) < गजवरगमने ।
मध्यकालीन हिंदी तथा आधुनिक हिंदी की विभाषाओं में भी ये शून्यरूप सुरक्षित हैं। खड़ी बोली में आकारांत सबल शब्दों के संबोधन ए० व० में - ए पाया जाता है - घोड़ा घोड़े, लड़का-लड़के । यह वस्तुतः वहाँ ए० व० का तिर्यक् या विकारी रूप है। राजस्थानी में संबोधन ए० व० में आ रूपों का विकास हुआ है छोरो-छोरा ; घोड़ोघोड़ा, कुत्तो- कुत्ता ।
2. Pischel $363
३. Tagare: Historical Grammar of Ap. $ 94
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२. ibid $ 374
8. ibid § 80 (b)
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