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________________ ध्वनि-विचार ४४७ व्यंजन+स्पर्श व्यंजन, सोष्म व्यंजन+अंतस्थ सोष्म व्यंजन सोष्म व्यंजन, सबल स्पर्श व्यंजन+निबल स्पर्श व्यंजन-सबल स्पर्श व्यंजन द्वित्व, निर्बल स्पर्श व्यंजन+सबल स्पर्श व्यंजन सबल स्पर्श व्यंजन द्वित्व, निर्बल स्पर्श व्यंजन-सबल स्पर्श पर्श व्यंजन द्वित्व । ठीक यही प्रक्रिया हिंदी के तद्भव शब्दों की संयुक्त ध्वनियों के विकास में भी पाई जाती है। इस संबंध में इतना संकेत कर दिया जाय कि तवर्गीय ध्वनियों का म० भा० आ० में विशेष विकास देखा जाता है। त्, द् के परे य होने पर तथा त् के परे स् होने पर इनमें तालव्यीकरण की प्रक्रिया (process of palatalization) पाई जाती है। सं० सत्य, विद्या का विकास संभवतः >*सच्य > सच्च, *विज्या > विज्जा के क्रम से हुआ जान पड़ता है। इसी तरह सं० वत्स का विकास *वत्श >*वच्श > वच्छ के क्रम से मानना होगा । यहाँ उक्त कल्पित प्रक्रियायें केवल ध्वनिवैज्ञानिक प्रक्रिया को स्पष्ट कर रही है, ऐतिहासिक पुनर्निर्मित रूप नहीं है। इसी तरह 'त्' के बाद 'म्' होने पर 'आत्मन्' शब्द के विकास में विकल्प से ओष्ठ्यीकरण (labialization) की प्रक्रिया भी पाई जाती है, आत्मन् (आत्मा)>*अप्मा (या>अत्पा)>अप्पा । इसका वै० रू. 'अत्ता' भी प्राकृत में देखा जाता है। 'त्म' के इस दुहरे विकास के लक्षण तद्धित प्रत्यय 'त्वन्' (त्वं) में भी देखे जाते हैं, जिसके प्राकृत में '-तण', '-प्पण' दुहरे रूप मिलते हैं । इसमें दूसरा विकास ही राज० -पण (भोळपण), खड़ी बोली -पन (भोलापन) में देखा जाता है। प्रा० पैं० में निम्न संयुक्त ध्वनियों का विकास पाया जाता है। क्क < क्र विक्कम (१.१२६८ विक्रम), चक्क (१.९६८ चक्र)>वक्क (>वंक १.२<वक्र) । <त्क उक्किट्ठ (२.१९<उत्कृष्ट) । <क्त उक्कि (२.२११<उक्ति) (यह उदाहरण अपवाद रूप है)। <ष्क चउक्कल (१.१८९< चतुष्कल) ।। क्ख <क्ष विपक्ख (१.१४७< विपक्ष), कडक्ख (१.४८ कटाक्ष) । रत्क्ष उक्खित्त (१.१६८<उत्क्षिप्त) । *ख्यविक्खाअ (१.५९ < विख्यात). ग्ग <ग्र जग्गंतो (१.७२ < जाग्रत्). < मग्गा (२.१७५ < मार्ग), वग्ग (१.१६९ < वर्ग), सग्गा (२.१७५ (स्वर्ग). <द्ग उग्गाहा (१.६८ < उद्गाथा). <ग्न अग्गी (१.१९० < अग्नि), लग्गंता (१.१८० < लग्नाः) । ग्घ <य॑ अग्घ (२.२०१ < अर्ध्य) ।। च्च <त्य भिच्च (१.२९ <भृत्य), सच्चं (१.७० < सत्यं), *णच्चइ (<णचइ १.१६६ < नृत्यति). च्छ <च्छअच्छ (२.१३४ < अच्छ), उच्छलइ (१.१९३ < उच्छलति). <क्ष रिउवच्छ (२.२०७ <रिपुवक्ष). ' <त्सउच्छव (१.११९ < उत्सव). <क्ष्मलच्छी (१.५९ < लक्ष्मी). त्स्य मच्छ (१.११२ < मत्स्य). <श्च पच्छा (२.१९५ < पश्चात्). ज्ज <य(कर्मवाच्य) अणुणिज्जइ (१.९५ < नीयते). <र्ज अज्जिअ (२.१०१ <अजयित्वा), आवज्जिअ (१.१२८ < आवर्ज-). <र्य कज्ज (१.२६ < कार्य). १. Kellogg : AGrammar of Hindi Language $103. p. 61 (Reprint 1965) २. निया प्राकृत तथा उत्तरकालीन खरोष्ठी लेखों की प्राकृत की यह खास विशेषता है । दे०-प्र० बे० पंडितः प्राकृत भाषा पृ. २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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