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________________ ४२८ प्राकृतपैंगलम् में जहाँ भी व्युत्पत्ति की दृष्टि मूल शब्द में 'ब' था, वहाँ मेंने 'ब' का ही प्रयोग किया है तथा उसका आधार D. हस्तलेख तथा निर्णयसागर संस्करण में संकेतित स्पष्ट भेद है। जहाँ व्युत्पत्ति की दृष्टि से मूल रूप 'व' था वहाँ तथा णिजन्त किया रूपों एवं व-श्रुतिक रूपों में मैंने 'व' का प्रयोग किया है। इस सम्बन्ध में इतना कह देना आवश्यक होगा कि सम्भवतः प्राकृतपैंगलम् के संग्रह के समय (१४वीं शती उत्तरार्ध में) णिजंत क्रिया रूपों, कतिपय संख्यावाचक शब्दों, सर्वनाम शब्दों तथा श्रुति-वाले रूपों को छोड़कर अन्यत्र सर्वत्र पुरानी पश्चिमी हिन्दी में-पुरानी पश्चिमी हिन्दी में ही नहीं पूरबी राजस्थानी में भी-'व' का परिवर्तन 'ब' में हो गया था । पश्चिमी राजस्थानी की बोलियों में यह भेद स्पष्टतः अभी भी सुरक्षित है। मूल 'ब' वहाँ 'ब' है, किन्तु 'व' का दन्त्योष्ठ्य 'व' रूप सुरक्षित है, जो मेवाड़ी जैसी राजस्थानी बोलियों में आज भी सुना जाता है। जैपुरी तथा हाडौती में यह ब्रजभाषा के प्रभाव से 'ब' हो गया है, तथा इसका अस्तित्व 'वास' (=सं० उपवास), वारणा, वै (उच्चारण Wa:) वाँनै (उ० waney) जैसे कतिपय छुटपुट रूपों में या 'गुवाळ' (=हि० ग्वाल) जैसे सश्रुतिक रूपों में मिलता है। पुरानी ब्रजभाषा में भी 'व' 'ब' हो गया था, जैसा कि डा० धीरेन्द्र वर्मा कहते हैं : "प्राचीन ब्रज में दन्त्योष्ठ्य 'व्' कभी कभी लिखा हुआ तो मिलता है, किन्तु लिपि के विचार से यह प्रायः 'ब' के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता था और कदाचित् 'ब' की भाँति ही इसका उच्चारण भी होता था । आधुनिक ब्रज में साधारणतया 'व' नहीं व्यवहृत होता है।"१ प्राकृतपैंगलम् के हस्तलेखों में 'व' के लिए प्रायः 'म' ही मिलता है । एक आध छुटपुट निदर्शन अपवाद है, जिनका संकेत हम अनुपद में करेंगे । कमल (=कवल), कमलमुहि (=कवलमुहि), कुमारो (=कुवाँरो), गअवरगमणी (=गअवरगवणी), चमर (=चक्र), ठाम (-ठाव), णाम (=णाव), भमरु भमर, भमरो (=भवँर, भवँरु, भवँरो) । वँ के स्पष्ट संकेत का पता दो निदर्शनों में मिलता है जहाँ भी इसे अननुनासिक 'व' से चिह्नित किया गया है। 'भाविणिअं' (=भाविणि सं० भामिनीनाम्) (१.२०). सावर साबर (कलकत्ता सं०) (सावर -श्यामल:) (२.१३६) । अन्य प्रतियों तथा निर्णयसागर में 'सामर' रूप ही मिलता है। इसके विपरीत एक स्थान पर C प्रति में 'बावण्ण' (१.१०७) के स्थान पर भी 'वामण्ण' रूप मिलता है। ण-न का भेद ६५२. जैन अपभ्रंश हस्तलेखों में मूर्धन्य 'ण' तथा दन्त्य 'न' का स्पष्ट भेद मिलता है। जैन महाराष्ट्री में पदादि 'न' ध्वनि सुरक्षित रखी जाती थी तथा पदमध्य में भी 'ह', 'पण' के स्थान पर 'न्ह', 'न' का चिह्न प्रयुक्त किया जाता था । पदादि 'न' के विषय में विद्वानों के दो मत पाये जाते हैं। जैसा कि प्राकृत व्याकरण के 'नो णः सर्वत्र' (प्रा० प्र० २.४२) सूत्र से पता चलता है, परिनिष्ठित प्राकृत में आदि तथा अनादि दोनों प्रकार की स्थिति में 'न' का मूर्धन्यीभाव (प्रतिवेष्टितीकरण) हो गया था। इसका अपवाद पैशाची प्राकृत थी, जहाँ उलटे मूर्धन्य 'ण' भी दन्त्य 'न' हो जाता था; तरुणी > तलुनी (पै०) । किन्तु जैन क्षेत्रों से प्राप्त हस्तलेखों में आदि 'न' सुरक्षित पाया जाता है। ऐसी स्थिति में रिचार्ड पिशेल, डा० परशुराम लक्ष्मण वैद्य, डा० हीरालाल जैन तथा डा० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये हस्तलेखों के 'न' को सम्पादन में 'ण' कर देने के पक्ष में हैं; किन्तु दूसरी ओर याकोबी अल्सदोर्फ तथा शहीदुल्ला आदि 'न' को सुरक्षित रखते हैं । डा० याकोबी ने अपने 'भविसत्तकहा' तथा 'सनत्कुमारचरित' के संस्करण में, डा० अल्सदोर्फ ने अपने 'कुमारपालप्रतिबोध' के संस्करण में यहाँ तक कि डा० वैद्य ने भी अपने 'हेमचन्द्र के प्राकृतव्याकरण' (पूना, १९२८) के संपादन में, पदादि १. डा० धीरेंद्र वर्मा : ब्रजभाषा 8 १२२. पृ० ४५. (हिन्दुस्तानी एकेडमी, १९५४) २. णो नः ॥ - प्रा० प्र० १०.५ 3. Tagare : Historical Grammar of Apabhramsa. $ 49 (a). p. 74 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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