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प्राकृतपैंगलम्
सकते हैं :-(१) चँर्डसर; (२) चंडेसर । मैने डा० घोष के अनुसार 'डे' का ह्रस्वोच्चारण माना है, अनुस्वार का नहीं । $ ३७. प्राकृतकाल में उद्वृत्त स्वरों की विवृत्ति प्रायः सुरक्षित रखी जाती थी। अपभ्रंश में यू- श्रुति का प्रयोग नियत रूप से चल पड़ा है । प्रा० पैं० में प्राकृत की भाँति उद्वृत्त स्वरों की विवृत्ति (Hiatus ) सुरक्षित पाई जाती है। न० भा० आ० में इन स्वरों को या तो संयुक्त कर दिया जाता है, या इन्हें संयुक्त स्वर - ध्वनि ( dipthong) के रूप में 'अइ' - 'अउ' जैसा ध्वनियुग्म बना दिया जाता है, या फिर बीच में य् या व श्रुति का प्रयोग किया आता है । यथा,
नापित > नाविअ, *नावुअ> नावू >णाउ (उक्तिव्य ३९/११), सुगंध->सुअंध>सोंध—(साँध -) (उक्तिव्य ४० / ३१), हस्ततालिका > हत्थआलिआ >* हत्थवालिआ हथोलि (४०/२८),
माता >माआ > माअ> मा (उक्तिव्य ३८ /१७)
चतुष्कः > चक्को > चौकु ( उक्तिव्य ४१ / ४ )
विरूप> बुरुअ (उक्तिव्य ३१/१५) > हि० बुरा
चटकिका > चडई > चडयी (३६/८ ) ( हि० चिड़िया, रा० चडी),
प्रा० पैं० में उद्वृत्त स्वरों की संधि के कतिपय उदाहरण पाये जाते हैं, जो उसके न० भा० आ० वाले लक्षणों का संकेत करते हैं ।
राउल (१.३६ <राअउल - राजकुल) (रा० रावळो),
कही (२.१२९ <कहिअ <कथिता, कथितं),
भणीजे (१.१०० भणिज्जइ), कहीजे (१.१०० <कहिज्जइ),
धरीजे (१.१०४<धरिज्जइ), ठवीजे (२.२०२<ठविज्जइ), आछे (२.१४४<अच्छइ), चले (१.१९८ < चलइ), आवे ( २.३८ < आवइ < आयाति), चलावे (२.३८ < चलापयति),
उगो (२.५५ उग्गउ उद्गतः ), आओ (२.१८१ <आअउ <आअओ <आगतः),
चोआलीसह (२.१८६<चउआलीसह चतुश्चत्वारिंशत्),
चोद्दह (२.१०२<चउद्दह चतुर्दश),
चोबिस (२.२१०<चउबिस - चउबीस चतुर्विंशत्),
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चो अगला (२.१४५ चउ अग्गला < चतुरग्रिलाः).
कतिपय हस्तलेखों में ऐसे स्थानों पर 'ऐ', 'औ' चिह्न पाये जाते हैं, यथा :
'वइरि' (१.३७) के स्थान पर A, K (C), N. में 'वैरि' पाठ मिलता है, इसी तरह 'चउसट्ठि' (१.५१) के स्थान पर A. B. में 'चौसट्ठि' पाठ है, जब कि D. में 'चोसट्ठि' ।
$ ३८. संदेशरासक की भूमिका में डा० भायाणी ने इस बात का संकेत किया है कि स्वरमध्यग अथवा श्रुतिरूप ( glide) व् का लोप करने की प्रवृत्ति मध्यदेश की विभाषाओं की विशेषता है तथा यह ब्रज, खड़ी बोली आदि में पाई जाती है । इस प्रवृत्ति के चिह्न संदेशरासक की भाषा तक में संकेतित किये गये हैं
(१) किसी प्रत्यय या विभक्तिचिह्न के पदादि 'इ' या 'ए' के पूर्व (क) पदांताक्षर में 'व्' का लोपकर दिया जाता है :-सरलाइवि (२६ ब = सरलाविवि < / सरलाव < *सरलापय्) रुइवि (६७ अ = रुविवि</रुव) मनाइ (१९३ ब= मंनावि</मंनाव) तथा (ख) पदमध्य में भी यह प्रक्रिया देखी जाती है :- 'कयवर' (४४द = कइ° = कवि )
(२) विभक्तिचिह्न–उ तथा पदमध्यग उ या ओ के पूर्व भी व् का लोप हो जाता है-रउ (४५ ब= रघु = खः),
१. दे० डा० घोष का संस्करण पृ० १८४, पादटि० २० २. Dr. Chatterjea : Uktivyakti (Study) 8 37
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