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प्राकृतपैंगलम् की पुरानी पश्चिमी हिन्दी ऊतरई" (कान्हडदेप्रबंध पृ० ४३) (पाटे पर पैर देकर उतरते हैं)। 'णइहि (णदिहि)' का 'हि' विभक्तिचिह्न ही आगे चलकर राजस्थानी-गुजराती में 'इ' (ई) के रूप में विकसित हो गया है। पुरानी पश्चिमी राजस्थानी में 'शिबिकाइँ' बाहिइँ', जैसे परवर्ती रूपों के अतिरिक्त टेसिटोरी ने एक प्राचीन अवशेष 'मनहिँ' (ऋष० ११, २९) का भी संकेत किया है ।' _ 'संतार' के 'सँतार' वाले रूप को परवर्ती बँगला कवि की इन पंक्तियों के 'साँतारे' से मिला कर, श्री मजूमदार ने बँगला रूप मान लिया है :
कत काल परे, बल मारतरे, दुख सागर साँतारे पार हरे । किंतु 'सँतार' को शुद्ध 'संतार' का ही पुरानी पश्चिमी हिंदी रूप न मानकर 'साँतारे' की कल्पना करना द्रविड़ प्राणायाम है । छंदःसुविधा के लिये अनुस्वार को अनुनासिक पढ़ना हिंदी की मध्यकालीन कविता में पाया जाता है । कवि बिहारी के निम्न उद्धरण इसे स्पष्ट करने में पर्याप्त होंगे, जहाँ अंग, कुटुंब के अँग, कुटुंब जैसे रूप मिलते हैं :
(१) सब अँग करि राखी सुघर, नायक नेह सिखाय ॥ (२) गड़ी कुटुंब की भीर में, रही बैठि दै पीठि ॥
'इत्थि' वाले रूप का निदर्शन ठीक इसी तौर पर पश्चिमी हिंदी या राजस्थानी में भले ही न मिलें, किंतु इससे मिलता जुलता अर्थात् इसका मूर्धन्यीकृत रूप 'इठि-अठी' राजस्थानी की विभाषाओं में भी पाया जाता है।
उक्त दोहे का 'जो चाहहि सो लेहि' तो ब्रजभाषा का वाक्य है, इसमें शायद मजूमदार साहब को भी कोई आपत्ति न होगी।
(३) हम्मीर की स्तुति में निबद्ध निम्न पद्य को श्री मजूमदार ने परवर्ती मागधी (प्राकृत) की रचना माना है, जो बँगला से घनिष्ठतया संबद्ध है। यहाँ तक कि इसकी भाषा को वे पुरानी बँगला (Proto-Bengali) तक कह बैठे हैं।
घर लग्गइ अग्गि जलइ धह धह दिगमग णह-पह अणल भरे । सब दिस दिस पसरि पाइक्क लुलइ धणि धण हर जघण दिआव करे ।। भअ लुक्किअ थक्किअ वइरि तरुणि जण भइरव भेरिअ सद्द पले ।
महि लोट्टइ पिट्टइ रिउसिर टुट्टइ जक्खण वीर हमीर चले । पहले तो इस उदाहरण के छंद को ही उन्होंने बँगला छन्दःपरम्परा की अपनी निजी विशेषता मान लिया है । यह 'लीलावती' छंद है, जो मध्यकालीन हिंदी तथा गुजराती काव्यों में प्रयुक्त पाया जाता है। अतः इसकी छन्दःप्रकृति का गौडीय भाषा वर्ग से कोई खास ताल्लुक नहीं जान पड़ता। दूसरे अधिकरण कारक में 'घर' 'दिगमग', 'णहपह' जैसे निर्विभक्तिक पदों के बारे में श्री मजूमदार की कल्पना है कि यहाँ 'ए' विभक्त्यंश का लोप छन्दःसुविधा के कारण कर दिया गया है। चूँकि बँगला में 'ए' वाले अधिकरण रूप पाये जाते हैं, अतः यह कल्पना की गई है। पर देखा जाय तो ये शुद्ध निर्विभक्तिक अधिकरण रूप ही हैं, जो पुरानी पश्चिमी हिंदी में धड़ल्ले से पाये जाते हैं। .
(१) खेलत हरि जमुना तीर (सूर)
(२) कुच उतंग गिरिवर गह्यौ मीना मैन मवास ॥ (बिहारी) 'भरे, करे, पले, चले' जैसे भूतकालिक क्रिया रूपों की समस्या श्री मजूमदार नहीं सुलझा पाये हैं। वे इन्हें 'भरी, करी, धरी' जैसे रूपों के विकृत रूप मानते हैं। किंतु देखा जाय तो ये खड़ी बोली के कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत ब० व० के रूप हैं, जिनके ए० व० रूप 'भरा, करा (परि० हि० किया), पला (परि० हि० पड़ा), चला' हैं । इसी तरह 'धणि' शब्द के लिये यह कहना कि यह शब्द केवल बंगाल में प्रचलित है, ठीक नहीं जान पड़ता । इस शब्द का 'स्त्री' के अर्थ में प्रयोग हेमचन्द्र तक में पाया जाता है-'ढोल्ला सामला धण चम्पावण्णी' और आज भी राजस्थानी में यह शब्द इसी अर्थ में प्रचलित है। जायसी ने मध्यकालीन अवधी
१. Ibid : $ 64 २. B. Majumdar : History of Bengali Language, p. 251 ३. दे० भिखारीदासः छंदार्णव ६.४४-४५, दलपतपिंगल पृ० १७; तथा रा० वि० पाठक: बृहत् पिंगल पृ० ३१६-३१७ ४. Majumdar : H. B. L. p. 252
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