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________________ प्राकृतपैंगलम् की पुरानी पश्चिमी हिन्दी ४०१ प्राकृतपैंगलम्, अपभ्रंश और अवहट्ठ: २९. प्राकृतपैंगलम् के टीकाकारों ने इस ग्रन्थ की भाषा को कभी 'अपभ्रंश' और कभी 'अवहट्ट' कहा है। ग्रन्थ के मंगलाचरण की भूमिका में अवहट्ट को लक्ष्मीधर ने 'भाषा' भी कहा है। "प्रथमं भाषाया अवहट्ट अपभ्रंश )भाषायास्तरण्डस्तरणिरित्यर्थः ।.... संस्कृते त्वाद्यकविर्वाल्मीकिः प्राकृते शालिवाहनः भाषा काव्ये पिंगलः ।"१ प्राकृतपैंगलम् के अन्य टीकाकार वंशीधर ने भी इसे अवहट्ट भाषा कहा है। __ "प्रथमो भाषातरंड: प्रथम आद्यः भाषा अवहट्टभाषा यया भाषया अयं ग्रन्थो रचितः सा अवहट्टभाषा तस्या इत्यर्थः।"२ अन्यत्र भी कई स्थानों पर इस भाषा की आकृतिगत विशेषता का संकेत करते हुए वंशीधर ने इस बात का संकेत किया है कि अपभ्रंश और अवहट्ट में समास में पूर्वनिपात के नियम की पाबन्दी नहीं की जाती तथा लिंग-वचन-विभक्ति के विपर्यय में दोष नहीं है : "यद्वा अवहट्टभाषायां लिंगविभक्तिवचनव्यत्यासे दोषाभावात् ।" (परि० ३, पृ० ६००-६०१) पिशेल ने प्राकृतपैंगलम् की भाषा को 'अपभ्रंश' माना है, यद्यपि वहीं यह संकेत भी मिलता है कि यह भाषा, हेमचन्द्र की अपभ्रंश से कुछ आगे की स्थिति का परिचय देती है।३ 'अपभ्रंश' तथा 'अवहट्ट' का प्रयोग कतिपय स्थानों पर पर्यायवाची रूप में भी देखा जाता है। पुराने कवि प्राकृतोत्तर या उत्तर मध्यकालीन भाषा के लिये 'अपभ्रंश', 'अपभ्रष्ट', 'अवहंस', अवब्भंस' नाम का प्रयोग करते हैं । कुछ कवियों ने इसे देसी भाषा भी कहा है। (१) देसी-भाषा उभय तडुज्जल । कविदुक्कर घणसद्दसिलायल ॥ (स्वयंभूः पउमचरिउ) (२) ण समाणमि छंदु ण बंधभेउ, णउ हीणाहिउ मत्तासमेउ । णउ सक्कउ पाउअ देस-भास, णउ सहु वण्णु जाणसि समास ॥ (लक्ष्मणदेवः णेमिणाहचरिउ) (३) पालित्तएण या वित्थरओ तह व देसिवयणेहिं ।। णामेण तरंगवई कहा विचित्ता य विउला य ॥ (पादलिप्त: तरंगवतीकथा) 'अवहट्ट' शब्द का प्रयोग हमें सर्वप्रथम 'संदेशरासक' में मिलता है । 'अवहट्टय-सक्कय-पाइयंमि पेसाइयंमि भासाए । लक्खणछंदाहरणे सुकइत्तं भूसियं जेहिं ।। (१.६) संदेशरासक के टीकाकारों ने यहाँ 'अवहट्ट' की संस्कृत 'अपभ्रंश' ही दी है, साथ ही उपयुद्धृत पद्य में संस्कृत, प्राकृत तथा पैशाची के साथ 'अवहट्ट' का प्रयोग इस बात का संकेत करता है कि 'अवहट्ट' अपभ्रंश का ही दूसरा नाम है, जिसकी व्युत्पत्ति 'अपभ्रष्ट' से हुई है। अद्दहमाण के समय का पूरी तरह तो पता नहीं चला किंतु यह निश्चित है कि वह हेमचन्द्र से परवर्ती है । इस समय (१२वीं-१३वीं शती) तक अपभ्रंश के लिये 'अवहट्ट' शब्द चल पड़ा था और आगे चलकर यह संभवत: उस साहित्यिक भाषा के लिये प्रयुक्त होने लगा जो तत्कालीन बोलचाल की भाषा से बहुत पिछड़ी हुई थी, किंतु पूरी तौर पर परिनिष्ठित अपभ्रंश भी न थी। कीर्तिलता की भाषा को विद्यापति ने एक साथ 'देसिल वअन' तथा 'अवहट्ठ' कहा है । सक्की वाणी बहुअ न भावइ । पाअउ रस को मम्म न पावइ ॥ देसिल वअना सब सन मिट्ठा । तं तैसन जंपिअ अवहट्ठा ॥ (प्रथम पल्लव) १. दे० प्राकृतपैंगलम् (परिशिष्ट २) पृ० ३७४ २. दे० परिशिष्ट ३, पृ० ५१९ । ३. Pischel : Prakrit Sprachen $ 29 ४. ता किं अवहंसं होहइ तं सक्कय पाय उभय सुद्धासुद्ध पद्य सम तरंग रंगत वाग्गिरं.... पणय कुविय पिय माणिणि समुल्लाव सरिसं मणोहरं (कुवलयमाला) ५. डा० हीरालाल जैन : पाहुडदोहा (भूमिका) पृ० ४१-४२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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