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________________ १.३५] मात्रावृत्तम् [१५ टिप्पणी :- पुहवी < पृथ्वी 'ऋ' का 'उ' (उदृत्वादिषु प्रा० प्र० १.२९.) 'थ्व' में 'थ' का 'ह' तथा संयुक्ताक्षर के बीच में उच्चारणसौकर्य के लिए 'अ' का स्वरागम । पिंगले < पिंगलेन (पिंगल+ए; करण कारक (कर्मवाच्य कर्ता) ए० व० 'ए-एँ' दोनों चिह्न पाये जाते हैं । 'एँ" के लिए दे०६ १६. मगण गण दुइ मित्त हो भगण यगण हो भिच्च । उआसीण जत दुअउ गण अवसिट्ठउ अरि णिच्च ॥३५॥ [दोहा] ३६. मगण तथा नगण दोनों परस्पर मित्र हैं। यगण तथा भगण भृत्य (सेवक) हैं । जगण-तगण दोनों उदासीन हैं। शेष गण-सगण-गण-सदाशत्र होते हैं। टिप्पणी :-भिच्च < भृत्य ('ऋ' का 'इ' में परिवर्तन; 'त्य' का 'च्च' दे० पिशेल % २९९ )। दुइ, दुअउ (द्वे, द्वौ)–'दुअउ' अप० रूप है । अवसिट्ठउ < अवशिष्ट+उ. कर्ता-कर्म ए० व० चिह्न । अह गणफल, मगण रिद्धि थिरकज्ज यगण सुहसंपअ दिज्जइ । रगण मरण संपलइ जगण खरकिरण विसज्जइ ॥ तगण सुण्ण फल कहइ सगण सहदेसु व्वासइ, भगण रचइ मंगल अणेक कइ पिंगल भासइ ॥ . जत कव्व गाह दोहइ मुणहु णगण होइ पढमक्खरहि । तसु रिद्धि बुद्धि सव्वइं फुरहि रण राउल दुत्तर तरह ॥३६॥ [छप्पअ] ३६. गणों के फल: मगण ऋद्धि तथा स्थिर कार्य प्रदान करता है, यगण सुखसंपति देता है, रगण मरण का संपादन करता है, जगण खरकिरण (ताप, उद्वेग) का विसर्जन करता है, तगण का फल शून्य होता है, सगण स्वदेश को छुड़वा देता है, भगण मंगल की रचना करता है, ऐसा सुकवि पिंगल ने कहा है। काव्य, गाथा, दोहा आदि जितने भी छंद है, यदि उनमें प्रथमगण नगण हो तो उस कवि की ऋद्धि, बुद्धि सभी प्रस्फुरित होती है, तथा वह युद्धस्थल में, राज्य में सर्वत्र कठिनाइयों को पार करता हैं। टिप्पण:-संपअ< संपत् (संपअ+० कर्ता० का० ए० व०)। दिज्जइ, विसज्जइ, वसिज्जइ < दीयते, विसृज्यते, वास्यते ये तीनों कर्मवाच्य के वर्तमानकालिक प्र० पु० ए० व० के रूप हैं । अप० में 'ज्ज' संस्कृत 'य' (कर्मवाच्य) का विकास है। प्राकृत में इसकी 'य' रूप भी पाया जाता है। दे० पिशेल $ ५३५. दे० तगारे १३३ (ii) तु० उप्पज्जइ । मुणहु-V+हु आज्ञा.म०पु०ब०व० प्रा० अप० में 'मुण' का अर्थ है 'जानना' (समझना); यह देशी धातु माना गया है, इसका संबंध सं. Vमन् (मनुते) से जोड़ा जा सकता है; पिशेल ३५. यगण-K. O. अगण । उआसीण-B. C. उदासीन, अवसिट्ठ-C. अवसिट्टउ, D. अवसिट्ठो, 0. अउसिठ्ठठ । णिच्च-C. निच्च । ३६. रिद्धि-A. B. D. ऋद्धि । थिरकज्ज-0. थिरक्कंद । यगण-K.O. अगण । सुह संपअ-D. सुहपइ संपइ । संपलइA. संपनइ । विसज्जइ-B. विसेसइ, C. विसज्जई । सुण्ण फल-C. सुन्नफल । कह-C. कहई । सहदेसु व्वासइ-B°विसज्जइ, C. सहदेसु व्वासई, D. सहदेसु उवासइ, 0. सहदेस उवाषह । रचइ-A. रअइ । K. इचइ, N. O. ठवइ, B. कुणइ, C. D. चवइ । अणेक-0. अणेअ । अणेक कइ पिंगलभासइ-A *णोग', B. °परिभासइ, C.अ नअ कई पिंगल भासई, N. मंगलइ सुकइ पिंगल परिभासइ । जत-D. यत । कव्वगाहदोहइ-A. कव्वगाहादोहइ, B कव्वहदोहइ, C. कव्वगाहादोहा, D. कव्वगाहदोहा । मुणहु-D. मणुह; पढमक्खरहि-C. पढमख्खरहि, D. पढमष्यरहि, K. पढमक्खरइ । रिद्धि-0. ऋद्धि । सव्वइ-A. सव्व, C. सव्वुइ, D. सव्वइ, K. सव्वउ, N. सव्वै । राउल-C. राउर, D. रावल । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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