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भूमिका
३६७ वीं शती का प्रथम चरण सिद्ध होता है । हरिब्रह्म का पद्य इसी काल की रचना है, तथा प्राकृतपैंगलम् में इसी काल में जोड़ा गया था। यदि यह रचना इसके बाद की होती, तो हरिब्रह्म के अधिक पद्य जोड़े जाते, साथ ही बाद के किसी अन्य कवि के भी पद्य उपलब्ध होते । चंडेश्वर तथा हरिब्रह्म से संबद्ध यह पद्य बाद का प्रक्षेप है, इसका एक प्रमाण उपलब्ध है। प्राकृतपैंगलम् की उपलब्ध सभी प्रतियों में तथा दोनों संस्करणों में छप्पय छंद के प्रकरण में चार पद्य उपलब्ध हैं । पद्य संख्या १०५ तथा १०७ में लक्षण निबद्ध हैं, पद्य संख्या १०६ तथा १०८ में उदाहरण । इस प्रकार छप्पय के संबंध में दो दो बार लक्षणोदाहरण देने की तुक समझ में नहीं आती । यह असंगति इस बात का संकेत करती है कि लक्षणपद्य १०७ तथा उदाहरणपद्य १०८ बाद के प्रक्षिप्त पद्य हैं। पद्यसंख्या १०६ हम्मीर से संबद्ध "हम्मीर कज्जु जज्जल भणइ" वाला प्रसिद्ध छप्पय है, जो निश्चित रूप से प्राकृतपैंगलम् के मूल संकलन का ही अंश है; जब कि लक्षण वाला पद्य सं० १०७ जिसमें छप्पय के लक्षण की पुनरावृत्ति सी पाई जाती है, तथा पुनः उद्धृत उदाहरण-पद्य संख्या १०८जो प्राकृतपैंगलम् में उपलब्ध हरिब्रह्म तथा चंडेश्वर से संबद्ध एकमात्र पद्य है-बाद का जोड़ा गया स्पष्ट जान पड़ता है।' प्राकृतपंगलम् का यह रूपपरिवर्तन संभवतः हरिब्रह्म के हाथों हुआ होगा, किंतु 'प्राकृतपैंगलम्' का मूल संकलनकार न तो हरिब्रह्म ही है, न यह संकलन हरिसिंहदेव के शासनकाल या इसके बाद की ही जान पड़ता है। संभवतः यह हरिसिंहदेव के कम-से-कम दस-बीस बरस पुराना है, तथा 'प्राकृतपैंगलम्' का मूलग्रन्थ रणथम्भौर के राजा हम्मीर के मारे जाने पर राजस्थान से आश्रय की खोज में तिरहुत के राजा के यहाँ आये बंदीजनों के द्वारा लाया गया था । हरिब्रह्म भी उसी परिवार के रहे होंगे तथा 'प्राकृतपैंगलम्' का संग्रह इनके किसी पूर्वज या संबंधी का किया जान पड़ता है। इस प्रकार 'प्राकृतपैंगलम्' का मूल संकलन १२९० ई०-१३१५ ई० के मध्य का जान पड़ता है । और अधिक तात्त्विक संकेत इतना किया जा सकता है कि संभवतः यह रचना १४ वी शती के प्रथम चरण के पूर्वार्ध में सर्वप्रथम राजस्थान में संकलित की गई थी। इतना तक हो सकता है कि इसका संकलन १३ वीं शती के अंतिम दिनों में हुआ हो, जब कि हम्मीर स्वयं विद्यमान था।
६. बहि: साक्ष्य :
(अ) प्राकृतपैंगलम् का सर्वप्रथम उल्लेख हमें दामोदर के 'वाणीभूषण' में मिलता है । दामोदरमिश्र का 'वाणीभूषण' छन्दःशास्त्र का ग्रन्थ है, तथा काव्यमाला सं० ५३ में १८९५ ई० में सर्वप्रथम प्रकाशित हुआ था । 'वाणीभूषण' को 'प्राकृतगलम्' से मिलाने पर जान पड़ता है कि प्रा० पैं० की ही भांति इसमें भी केवल दो परिच्छेद हैं, प्रथम में मात्रावृत्त हैं, द्वितीय में वर्णवृत्त । छंदों की संख्या तथा कम 'प्राकृतपैंगलम्' के ही अनुसार है तथा कई लक्षण तो जैसे 'प्राकृतगलम्' के लक्षणों के संस्कृत अनुवाद मात्र है। 'वाणीभूषण' की रचना का उद्देश्य दामोदरमिश्र ने यह बताया है कि कुछ संस्कृत विद्वान् प्राकृत के छन्दःग्रन्थों का पर्यालोचन नहीं करते, अतः यह रचना उनके लिए की गई है।
अलसधियः प्राकृतमधि सुधियः केचिद्भवन्तीह ।
कृतिरेषा मम तेषामातनुतादीषदपि तोषम् ॥ (पद्य ३)२ । ये दामोदरमिश्र मिथिला के ब्राह्मण थे तथा दीर्घघोषकुल में उत्पन्न हुए थे। विद्वानों का मत है कि दामोदरमिश्र मिथिला के राजा कीर्तिसिंह (१३९०-१४०० ई०) के दरबार में थे। उनके 'वाणीभूषण' में कीर्तिसिंह की प्रशस्ति में निबद्ध निम्न पद्य कुंडलिका के उदाहरण रूप में उपलब्ध है :
तरणीभवसि निमज्जतो दुरितपयोनिधिवारि, दिशि दिशि विलसति तव यशो नवहिमरुचिरुचिधारि । नवहिमरुचिरुचिधारि महोऽपि न यस्य समानं, परवारण बलसिंह विदुषि वितरसि बहु दानम् ॥ परवारण बलसिंह जयसि भुवि जगदेकरणी, कीर्तिसिंह नृप जीव यावदमृतद्युतितरणी ॥
(मात्रावृत्त पटल ८२) १. इसका प्रमाण यह भी है कि 'प्राकृतपैंगलम्' के एक टीकाकार वंशीधर ने भी इसे क्षेपक घोषित किया है, जो संभवतः किसी
न किसी परम्परा पर आधृत जान पड़ता है :-'इदं च पूर्वोक्तलक्षणैनेव गतार्थत्वात् क्षेपकमिवाभातीति बोध्यम्' । (कलकत्ता सं०
पृ० १८५ पर १.१०७ की वंशीधरी टीका) २. वाणीभूषण. पृ. १. (काव्यमाला ५३) ३. दीर्घघोषकुलोद्भूतः दामोदर इति श्रुतः । छन्दसां लक्षणं तेन सोदाहरणमुच्यते ॥ (पद्य ४)
४. वाणीभूषण पृ० १३ (काव्यमाला) । Jain Education International
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