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________________ ३६५ भूमिका कर्पूरमञ्जरी सट्टका से उद्धृत छह पद्य पाये जाते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि प्राकृतपैंगलम् का संग्रह राजशेखर के बहुत बाद का है। राजशेखर का समय ईसा की नवीं शती का उत्तरार्धं तथा दसवीं शती का प्रथम चरण है। राजशेखर कान्यकुब्ज के प्रतिहार राजा महेन्द्रपाल तथा उसके पुत्र महीपाल के यहाँ थे, जिनका काल ८९३ ई० से ९१४ ई० तक है । (आ) प्राकृतपैंगलम् के वर्णवृत्त प्रकरण के एक उदाहरण (पद्म संख्या २१५ ) पर जयदेव की प्रसिद्ध 'दशावतारस्तुति' - 'जय जय देव हरे' - का प्रभाव पाया जाता है, जो संभवत: पहले सहजयानी थे तथा बाद में वैष्णव हो गये थे और लक्ष्मणसेन के दरबार से संबद्ध थे । इनकी रचना 'गीतगोविंद' ईसा की १२वीं शती में लिखी गई है तथा एक अन्य पद्य (मात्रावृत्त २०८) पर भी इसका प्रभाव देखा जा सकता है, जहाँ कृष्ण एवं राधा का उल्लेख मिलता है "चाणूर विहंडिअ णिअकुल मंडिअ राहामुहमहुपाण करे जिमि भमरवरे ॥" वस्तुतः 'दशावतारस्तुति' इस काल के वैष्णव तथा पौराणिक कवियों के काव्य का खास अंग बन गई थी। संस्कृत में इसका संकेत सर्वप्रथम क्षेमेन्द्र कवि के 'दशावतारवर्णन' में किया जाता है। किंतु यह परंपरा और भी पुरानी जान पड़ती है तथा इसके बीज हमें सबसे पहले 'माघ' के 'शिशुपालवध' की भीष्मस्तुति में मिलते हैं। 'दशावतारस्तुति' की परंपरा संस्कृत तथा भाषाकाव्यों की समान प्रवृत्ति थी जिसका एक विशाल रूप हमें श्रीहर्ष के 'नैषधीयचरित' में मिलता है, तो दूसरा रूप चन्द के 'पृथ्वीराजरासो' में मिले 'दसम्' में है 'प्राकृतपैंगलम्' की 'दशावतारस्तुति' वाली परंपरा इस प्रकार एक लंबी परंपरा है, किंतु इस पद्य की पद-रचना तक पर जयदेव की पदरचना का प्रभाव संकेतित किया गया है । निम्न पंक्तियों को तुलना के लिए उपस्थित किया जाता है : ४ 'बलि छलि महि वरु असुर विलयकरु, मुणिअणमाणसहंसा सुहवासा उत्तमवंसा' (प्रा० ० २.२१५) * 'दिनमणिमण्डलमण्डन भवखण्डन ए मुनिजनमानसहंस, जय जय देव हरे ।' ( गी० गो० १.३ - २) स्पष्ट है कि प्राकृतपैंगलम् का संग्रहकाल जयदेव से पूर्व का नहीं हो सकता तथा यह १२ वीं शती के बाद संगृहीत हुआ था । (इ) प्राकृतपैंगलम् में कलचुरिवंश के राजा डाहल कर्ण का, जिसका रचनाकाल १०४० - ८० ई० माना गया है, " संकेत मिलता है । कतिपय पद्य कर्ण की प्रशंसा में निबद्ध पाये जाते हैं, जिन्हें महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने बब्बर नामक कवि' की रचना माना है। अतः स्पष्ट है कि प्राकृतपैंगलम् की रचना ग्यारहवीं शती के बाद की है । १. कर्पूरमञ्जरी से वर्णवृत्त के १०७, ११५, १५१, १८७, १८९ तथा २०१ संख्यक पद्य । * * २. Keith: Sanskrit Drama p. 232. ( reprint. 1954). ३. माघः शिशुपालवध १४.७१-८६ । ४. श्रीहर्ष नैषधीयचरित २१ ५६ - ११८ । : ५. डा० द्विवेदी हिंदी सा० का आदिकाल पृ० ११० । . "The poem I next quote reminds us of Jayadeva. There are many lines in some other poems occurring in the which are almost word for word equivalent to some lines of Jayadeva's गीतगोविन्द for example मुनिजनमानसहंस is met with in a verse in the प्राकृतपैंगल" - B. C. Majumdar History of Bengali Language p. 255. ( साथ ही) डा० चाटुर्ज्या ने भी 'History of Bengal vol. I. (Dacca Univ, pub.) में इस बात को स्वीकार किया है कि 'गीतगोविन्द' का प्रभाव प्राकृतपैंगल के वर्णवृत्त २०७, २११ तथा २१५ पर स्पष्ट दिखाई पड़ता है। ७. प्रो० विन्सेंट स्मिथ के अनुसार कलचुरि कर्ण का राज्यकाल १०४०–७० ई० था । (Early History of India p. 406), जब कि प्रो० राय ने इसका समय १०४२-७० ई० माना है । (Dynastic History of Northern India. vol. II. P. 897) प्रो० चिन्तामणि विनायक वैद्य ने इसका काल १०४०-८० ई० माना है । ( History of Medieval Hindu India. p. 188) ८. राहुल सांकृत्यायन : हिंदी काव्यधारा पृ० ३१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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