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१.१४]
में मिलता है । हि. रा०गुज० आठ ।
तिअ-पिशेल ने बताया है कि 'त्रि' का 'वेति' वैभाषिक रूप पाया जाता है। अर्धमागधी में 'त्रि' का ते से पाया जाता है, तेईदिय, तेंदिय (प्रीन्द्रिय) रूप मिलता है, दे० ६ ४३८ पृ. ३१२ । हस्व ऐ से 'इ' में परिवर्तन होने पर 'ति-ति, तिअ' रूप बनते हैं, जिनका प्रयोग अप० में मिलता है।
मात्रावृत्तम्
बे<द्वे (संस्कृत 'द्वे' के 'दु', 'दुइ' 'द्वे' विकास पाये जाते हैं। इसका 'बे' रूप भी मिलता है (दशवैकालिक, इंद्रियपराजयशतक, योगशास्त्र । दे० टेसिटोरी १८२ )। दे० पिशेल $ ५३७ पृ. ३११ । पिशेल ने लिखा है :- - 'बे' पीजी ६.१४-३१.३९ में मिलता है, साथ ही मागधी में भी (ह. ७५२) इसके 'ब' रूप तथा 'द रूप दोनों है। अर्धमागधी में बेईदिय, बिंदियद्वीन्द्रिय ( १६२), बेदोणिय द्विद्रोणिक (उवासगदसाओ १३५), जैनशौरसेनी में दुत्तिग ३९९.३१०, कर्मकारक रूप है, अपभ्रंश में द-रूप हेम ४.४३९, पिंगल १.९.६८ में मिलते हैं । अपभ्रंश में 'ब' रूप भी मिलता है। (पिंगल १.१५३) । इसका नपुंसक लिंग में 'बिणि' रूप होता है (हेम ३.१२०, पिंगल १.९५ ) ।
अह पत्थारो
पढम गुरु हेठाणे, लहुआ परिठवहु अप्पबुद्धीए ।
सरिसा सरिसा पंती, उव्वरिआ गुरुलहू देहु ||१४|| [ गाथा |
१४. मात्राप्रस्तार का प्रकार
सर्वप्रथम अधःस्थान में गुरु लिखें, तदनन्तर अपनी बुद्धि से लघु देते चलें । समान पंक्ति मे उद्वृत्त (वाम भाग) में क्रमशः गुरु लघु देना चाहिए ।
इसे हम षट्कल को लेकर स्पष्ट कर सकते हैं। षट्कल का प्रथम भेद 555 होगा। इसमें प्रथम गुरु के स्थान पर लघु करने में हमें छः मात्रा पूरी करने के लिए एक मात्रा की जरूरत और पड़ेगी। अतः उसके स्थान पर दो लघु रखने होंगे। इस तरह षट्कल का दूसरा भेद ॥ऽऽ होगा । इसके बाद तीसरे भेद में हमें द्वितीय गुरु को लघु बनाना होगा तब फिर एक मात्रा की कमी होने से पूर्ववर्ती लघु को गुरु करने से तीसरा भेद 1515 होगा। इसी क्रम से 5115, 115, 1551, 5151, 11151, 550, ॥5॥ इत्यादि भेद बनेंगे। यही सिद्धांत पंचकल, चतुष्कल आदि गणों के साथ भी लागू होता है।
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टिप्पणी- ठाणे - स्थाने (संयुक्ताक्षर के आदि 'स' का लोप, 'नो णः', 'थ' का प्रतिवेष्टितीकरण, ठाण+ए अधिकरण ए० व० रा० ठाण (उच्चारण ठाण-घोड़े का अस्तबल ) ।
अह उकलपत्थारे गणाणं णामाई
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परिवहु < परिस्थापय (परिवहु आज्ञा म०पु० बहुवचन) । अप्पबुद्धीए < आत्मबुद्धया । अप्प < आत्म आत्मनि पः' प्रा०प्र० ३.४८, हि० रा० आप । बुद्धी + ए स्त्रीलिंग करण कारक ए०व० का चिह्न । प्राकृत - अपभ्रंश में इसमें कई वैकल्पिक रूप बनते हैं बुद्धीअ, बुद्धीआ, बुद्धी, बुद्धीए (दे० पिशेल $ ३८५, पृ. २६८) । पंती पंक्ति (पंती + शून्य विभक्ति कर्ता० ए० व०) ।
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हर ससि सूरो सक्को सेसो अहि कमल बंभ कलि चंदो । धुअ धम्मो सालिअरो तेरह भेआ छमत्ताणं
॥१५॥
[गाथा]
१५. षट्कल प्रस्तार के गणों के नाम निम्न है
:
हर, शशि, सूर, शक्र, शेष, अहि, कमल, ब्रह्मा, कलि, चंद्र, ध्रुव, धर्म, शालिकर-षट्कल के ये तेरह भेद होते हैं । टिप्पणी-बंभु < ब्रह्मा (रेफ का लोप, 'ह्म' का 'भ' दे० पिशेल ६ ३३०; उ अपभ्रंश में कर्ता-कर्म ए० व०
की विभक्ति। १४.
ठाणे - B. हेठ ठाणे, C हेठ्ठठाणे, D. हेठ्ठ ठाणे, O हेट्ठट्ठाणे । परिठवहु - A. C. परिवहु K. परिठबहु । सरिसाप्पंति, A D 'पंती, K. पंत्ती । 'लहू - A CO 'लहु । देहु - B. देहू । १५. ससि - A. शशि, C. शसि सणो । कमल - K. कमलु बंभ-C. वंभ K. बंभु कलि चंदो-0. किणी अंधो O. छमत्ताई ।
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भेआ K. भेओ, C.
आ
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पंती - C. सेसो - C छमत्ताणं
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