________________
१४०] प्राकृतपैंगलम्
[२.१४९ १४८. जहाँ प्रत्येक चरण में पहले चामर (गुरु), फिर पापगण (सर्वलघ्वात्मक पंचकल), फिर शल्य (लघु), फिर दो चरणगण (भगण) की स्थापना करो; प्रत्येक चरण में सोलह कला समझी जायँ, पिंगल (उसे) पंकावली (छंद) कहते हैं। (पंकावली:-
S SIS=१३ वर्ण) टिप्पणी-पढमहि < प्रथमे । ठावहि स्थापय, णित आज्ञा म० पु० ए० व० । जाणिअ < ज्ञाताः, कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत रूप । पंकअवालिअ (=पंकावलिअ) < पंकावलिका, कर्म ए० व० छन्दोनिर्वाहार्थ विकृत रूप ।
जहा,
जो जण जणमउ सो गुणमंतउ, जे कर पर उअआर हसंतउ ।
जे पुण पर उअआर विरुज्झउ, तासु जणणि कि ण थक्कड़ वंझउ ॥१४९॥ [पंकावली] १४९. उदाहरण:
उसी व्यक्ति ने जन्म लिया है (उसीका जन्म सफल है), वही व्यक्ति गुणवान् है, जो हँसते हुए दूसरे का उपकार करता है; और वह जो परोपकार के विरुद्ध है, उसकी माँ बाँझ क्यों न रही ?
टिप्पणी कर < करोति, वर्तमान प्र० पु० ए० व० में शुद्ध धातु का प्रयोग । हसंतउ < हसन्, वर्तमानकालिक कृदंत रूप। विरुज्झउ < विरुद्धः, कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत रूप । तासु < तस्य > तस्स > तस्सु > तासु ।
थक्कउ < तिष्ठतु; टीकाकारों ने इसे वर्तमानकालिक रूप 'तिष्ठति' माना है, जो गलत है, वस्तुतः, यह आज्ञा प्र०पु० ए० व० रूप है।
चतुर्दशाक्षरप्रस्तार, वसंततिलका:
कण्णो पइज्ज पढमे जगणो अ बीए, अंते तुरंग सअणो यअ तत्थ पाए । . उत्ता वसंततिलआ फणिणा उकिट्ठा, छेआ पढंति सरसा सुकइंददिट्ठा ॥१५०॥
१५०. जहाँ प्रत्येक चरण में पहले कर्ण (दो गुरु) पड़े, फिर जगण तथा इसके अंत में तुरंग (सगण) तथा सगण (अर्थात् दो सगण) और यगण पड़ें,-फणिराज पिंगल के द्वारा कथित सुकवियों के द्वारा दृष्ट छंद वसंततिलका को सरस विदग्ध व्यक्ति पढ़ते हैं।
टिप्पणी-पइज्ज-कर्मवाच्य धातु का शुद्ध मूल रूप । (पत्+य > पअ+इज्ज ) (वर्तमान ए० व० रूप 'पइज्जई', 'पडिज्जइ' होगा)।
तत्थ < तत्र । (वसंततिलका:-5515ISISI55=१४ वर्ण) ।
१४९. जण-C. N. जग, O. जइ । जणम:-A. B. जणमेउ । गुणमंत-C. गुणमन्तह । उअआस्-A. B. K.O. उवआर। हसंत:-C. हसन्तह । विरुज्झ-C. K. विरुझ्झउ, A. विरुज्झउ, B. विरुज्झइ । तासु-A. तासू, B.C. N. तासु, K. ताक । थक्-A. B. थक्कइ, N. थकइ, C. थाकउ, K. थक्कउ । वंझ-A. B. वझ्झाइ, N. वज्झइ, K. बंझउ। १५०. पइज्ज-A. ठविज्ज । पढमे-C. पढमो । अ बीए-C. ठविज्जे । सअणो-C. सगणो । यअ-K. जअ । तत्थ-N. तच्छ। फणिणा उकिट्ठा
C. फणिराउदिठ्ठा, K. "उकिट्ठा । पढंति-K. पठंति । C. N. दिठ्ठा ।। Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org