SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २.६४] वर्णवृत्तम् [११५ ये दोनों वर्तमानकालिक उ० पु० ए० व० के रूप हैं । गइ < गत्वा (*गम्य=*गय्य) 7 गइअ > गइ । पूर्वकालिक क्रिया रूप । शीर्षरूपक छंदः सत्ता दीहा जाणेही कण्णा ती गो माणेही । चाउद्दाहा मत्ताणा सीसारूओ छंदाणा ॥१४॥ ६४. सात दीर्घ अक्षरों को जानो, तीन कर्ण (द्विगुरु चतुष्कलगण) तथा अंत में एक गुरु समझो, चौदह मात्रा हों, यह शीर्षरूपक छंद है। (5555555) । टिप्पणी-जाणेही, माणेही < जानीहि; मन्यस्व, म० पु० ए० व० । यह रूप “हि' को दीर्घ कर बनाया गया है। चाउद्दाहा < चतुर्दश > 'चउद्दह' को छन्दोनिर्वाह के लिए 'चाउद्दाहा' कर दिया है। इसके अन्य रूप-चाद्दह (हेमचंद्र, ८-१७१), चाद्दस, चउद्दस (छंदोनिर्वाहार्थ रूप 'चउदस')। ये सब जैनमहा०, अर्धमा० रूप हैं। प्रा० पैं० में -१३३-१३४) चारिदह, दहचारि' रूप भी मिलते हैं। 'चउदस' को छंदोनिर्वाहार्थ (मेट्री कॉजा Metri Causa) स्पष्ट रूप से नहीं लिखा है, पर यह रूप 'मेट्री कॉजा' ही है, इसमें कोई संदेह नहीं । दे० पिशेल $ ४४३ । जहा, चंदा कुंदा ए कासा हारा हीरा ए हंसा । जे जे सत्ता वण्णीआ तुम्हा कित्ती जिण्णीआ ॥६५॥ [सीसरूपक शीर्षरूपक] ६५. उदाहरण:कोई कवि किसी राजा की प्रशंसा कर रहा है : चंद्रमा, कुंद, काश, हार, हीरा और हंस; संसार में जितने भी श्वेत पदार्थ वर्णित है, तुम्हारी कीर्ति ने (उन सबको) जीत लिया है। टिo-तुम्हा-2 तव; 'तुम्ह' (पिशेल $ ४२१) का छंदोनिर्वाहार्थ दीर्धीकृत रूप । वण्णीआ, जिण्णीआ-(वणिताः, जिताः) प्राकृत में 'जि' धातु को 'जिण' आदेश हो जाता है। कर्मवाच्य भूतकालिक कृदंत पु० ब० व० के रूप वण्णिआ, जिण्णिआ होंगे। छन्दोनिर्वाहार्थ द्वितीयाक्षर की 'इ' ध्वनि को दीर्घ बना दिया है। अष्टाक्षरप्रस्तार विद्युन्माला: विज्जूमाला मत्ता सोला, पाए कण्णा चारी लोला । . एअं रूअं चारी पाआ, भत्ती खत्ती णाआराआ ॥६६॥ ६६. विद्युन्माला छंद में सोलह मात्रा तथा चार कर्ण (गुरुद्वय) अर्थात् आठ गुरु होते हैं । इस प्रकार इसमें चार चरण होते हैं। नागराज ने इसे क्षत्रिय जाति का माना है। (5555 5555) (इस पद्य के 'भत्ती खत्ती' का कुछ टीकाकार 'भक्त्या क्षत्रियः क्षत्रियजातिनागराज: जल्पतीति शेषः' अर्थ करते हैं; अन्य टीकाकार 'भत्ती' का '(नागराजेन) भण्यते' अर्थ करते हैं तथा 'खत्ती' को 'क्षत्रिया' से अनूदित कर विद्युन्माला का विशेषण मानते हैं। (क्षत्रिया जातिरिति कश्चित्-दे० प्रा० ० की विश्वनाथकृत टीका, बि० इं० सं० पृ. १७१ । हमने इसी अर्थ को मान्यता दी है।) सोला-< षोडश; (दे० पिशेल ६ ४४३ । अर्धमागधी, जैनम० में इसके सोलस, सोलसय रूप मिलते हैं । प्रा० पैं० में सोलह रूप भी मिलता है। पिशेल ने 'सोला' रूप का संकेत करते समय प्रा० पैं० के इसी पद्य का हवाला दिया है ।) तु. हि० सोलह, रा० सोळा (प्रा० प० रा० सोल, दे० टेसिटोरी ६८०)। एअं रूअं-प्राकृतीकृत (प्राकृताइज्ड) रूप । प्रा० पैं० की भाषा में नपुंसक का तत्त्वतः अभाव है, अत: इन छुटपुट नपुंसक के उदाहरणों को अपवाद ही मानना होगा । या तो यह प्रवृत्ति छन्दोनिर्वाहार्थ अनुनासिक के प्रयोग का संकेत करती ६४. सीसारूओ-N. सीसारूअं। ६५. सत्ता-N. सेता । वण्णीआ-C. विण्णिआ । तुम्हा-C. तुम्हारी, 0. तुंभा । ६६. मत्ता सोला-A. B. सोला मत्ता । खत्ती-A. षत्ती। णाआराआ-C. विज्जूमाला आ, N. O. विज्जूराआ। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy