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अंगविज्जापइयं
मित्रसार या मित्रसमृद्धि पांच प्रकार की होती थी-संबंधी, मित्र, वयस्क, स्त्री एवं भृत्य की । बाहर और भीतर के व्यवहारों में जिसके साथ साम्य या सख्यभाव हो वह मित्र और जिसके साथ सामान्य मित्रभाव हो वह वयस्य कहा जाता है ।
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ऐश्वर्य सार के कई भेद हैं-जैसे, नायकत्व, अमात्यत्व, राजत्व, सेनापतित्व आदि ।
विद्यासार का तात्पर्य सब प्रकार के बुद्धिकौशल, सर्वविद्या एवं सर्वशास्त्रों में कौशल या दक्षता से है ( पृ० २११ - २१३) ।
५५ वें अध्याय में निधान या गड़ी हुई धनराशि का वर्णन है । निधान, संख्या या राशि की दृष्टि से कई प्रकार का हो सकता है-जैसे शतप्रमाण, सहस्रप्रमाण, शतसहस्रप्रमाण, कोटिप्रमाण अथवा इससे भी अधिक अपरिमित प्रमाण । एक, तीन, पांच, सात, नौ, दस, तीस, पचास, सत्तर, नव्वे, शत आदि भी निधान का प्रमाण हो सकता था । किस स्थान में निधान की प्राप्ति होगी इस विषय में भी अंगवित् को बताना पड़ता था । जैसे प्रासाद में, माल या ऊँचे खंड में, पृष्ठ वंश या बँडेरी में, आलग्ग ( आलग्न अर्थात् प्रासाद आदि से मिले हुए विशेष स्थान खिड़की, आले आदि), प्राकार, गोपुर, अट्टालक, वृक्ष, पर्वत, निर्गमपथ, देवतायतन, कूप, कूपिका, अरण्य, आराम, जनपद, क्षेत्र, गर्त, रथ्या, निवेशन, राजमार्ग, क्षुद्ररथ्या, निक्कुड (गृहोद्यान), रथ्या (मार्ग), आलग्ग (आलमारी या आला), कुड्या, णिव्व (= नीव्र, छज्जा), प्रणाली, कूपी (कुइया), वर्चकुटी, गर्भगृह, आंगन, मकान का पिछवाड़ा (पच्छावत्थु ) आदि में ।
निधान बताते समय इसका भी संकेत किया जाता था की गड़ा हुआ धन किस प्रकार के पात्र में मिलेगा; जैसे, लोही (लोहे का बना हुआ गहरा डोलनुमा पात्र), कड़ाह, अरंजर, कुंड, ओखली, वार, लोहीवार (लोहे का चौड़े मुँह का बर्तन) । इनमें से लोहा, कड़ाह और उष्ट्रिक (उष्ट्रिका नामक भाजन विशेष बहुत बड़े निधान के लिए काम में लाये जाते थे । कुंड, ओखली, वार और लोहवार मध्यम आकृति के पात्र होते थे । छोटों में आचमनी, स्वस्ति आचमनी, चरुक ओर ककुलुंडि (छोटी कुलंडिका या कुल्हड़ी; कुल्हड़िया घटिका, पाइयसद्दमहण्णवो) ।
अंगवित् को यह भी संकेत देना पड़ता
में गड़ा हुआ, अथवा वह प्राप्य है या अप्राप्य - पृ० २१३-२१४ ।
कि निधान भाजन में रखा हुआ मिलेगा या सीधे भूमि
अध्याय ५६ की संज्ञा णिधिसुत्त या निधिसूत्र है । पहले अध्याय में निधान के परिमाण, प्राप्तिस्थान और भाजन का उल्लेख किया गया है । इस अध्याय में निधान द्रव्य के भेदों की सूची । वह तीन प्रकार का हो सकता है - प्राणयोनिगत, मूलयोनिगत और धातुयोनिगत । प्राणयोनि संबंधित उपलब्धि मोती, शंख, गवल (= सींग), बाल, दन्त, अस्थि आदि से बने हुए पात्रों के रूप में संभव है । मूलयोनि चार प्रकार की कही संबंध सब प्रकार के धातु, रत्न, मणि आदि से है; गणना मणियों में होती है । घिस कर अथवा चीर कर और कोर करके बनाई हुई गुरियाँ और मणके मणि, शंख और प्रवाल से बनाये जाते थे । वे विद्ध और अविद्ध दो प्रकार के होते थे । उनमें से कुछ आभूषणों के काम में आते थे । गुरिया या मनके बनाने के लिये खड़ पत्थर भिन्न भिन्न आकृति या परिमाण के लिये जाते थे। जैसे अंजण (रंगीन शिला), पाषाण, शर्करा, लेडुक (डला) ढेल्लिया (डली), मच्छक ( पहलदार छोटे पत्थर), फल्ल (वेदार संग या मनके ) - इन्हें पहले चीर कर छोटे परिमाण का बनाते थे। फिर चिरे हुए टुकड़े को कोर कर (कोडिते) उस शकल का बनाया जाता था, जिस शकल की गुरिया बनानी होती थी । कोरने के बाद उस गुरिया को खोडित अर्थात् घिस कर चिकना किया जाता था । कडे संग या मणियों के अतिरिक्त हाथीदांत और जंगली पशुओं के नख भी (दंतणहे) काम में लाये जाते थे । इन दोनों के कारीगरों को दंतलेखक और नखलेखक कहा जाता था । बड़े टुकड़ों को चीरने या तराशने में जो छोटे टुकड़े या रेजे बचते थे उन्हें चुण्ण कहा जाता था जिन्हें आज कल चुन्नी कहते हैं । इन सब की गणना धन में की जाती थी ।
गई है - मूलगत, स्कन्धगत, पत्रगत, फलगत । धातुयोनि का जैसे लोहिताक्ष, पुलक, गोमेद, मसारगल्ल, खारमणि - इनकी
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