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________________ भूमिका दूत, सन्धिपाल या प्रवासी के रूप में आते-जाते हों, उस प्रसंग को प्रावासिक योनि मानना चाहिए । ये ही लोग जब ठहरे हुए हों तो उसे पवुत्थ या गृहयोनि समझना चाहिए । तेरहवें अध्याय में नाना प्रकार की योनियों के आधार पर शुभाशुभ फल का कथन है। सजीव, निर्जीव और सजीव-निर्जीव तीन प्रकार की योनि हैं और तीन ही प्रकार के लक्षण हैं, अर्थात् उदात्त, दीन और दीनोदात्त । (पृ० १४०-१४४) चौदहवें अध्याय में यह विचार किया गया है कि यदि प्रश्नकर्ता लाभ के सम्बन्ध में प्रश्न करे तो कैसा उत्तर देना चाहिए । लाभ सम्बन्धी प्रश्न सात प्रकार के हो सकते हैं-धनलाभ, प्रियजनसमागम, सन्तान या पुत्रप्राप्ति, आरोग्य, जीवित या आयुष्य, शिल्पकर्म, वृष्टि और विजय । इनका विवेचन चौदहवें से लेकर २१ वें अध्याय तक किया गया है। वृष्टिद्वार नामक बीसवें अध्याय में जल सम्बन्धी वस्तुओं का नाम लेते हुए कोटिम्ब नामक विशेष प्रकार की नाव का उल्लेख आया है, जिसका परिगणन पृष्ठ १६६ पर नावों की सूची में पुनः किया गया है । धनलाभ के सम्बन्ध में फलकथन उत्तम वस्त्र, आभरण, मणि-मुक्ता, कंचन-प्रवाल शयन, भक्ष्य भोजन आदि मूल्यवान् वस्तुओं के आधार पर और प्रश्नकर्ता द्वारा उनके विषय में दर्शन या भाषण के आधार पर किया जाता था (पृ० १४४-१४५) । पन्द्रहवें अध्याय में हंस, कुररी, चक्रवाक, कारण्डव, कादम्ब आदि पक्षियों की कामसम्बन्धी चेष्टाओं अथवा चतुष्पथ, उद्यान, सागर, नदी, पत्तन आदि की वार्ताओं के आधार पर समागम के विषय में फलकथन किया गया है । इसमें संमोद, संप्रीति, मित्रसंगम या विवाह आदि फलों का उल्लेख किया जाता था । सोलहवें अध्याय में सन्तान के सम्बन्ध में प्रश्न का उत्तर कहा गया है, जो बच्चों के खिलौनों या तत्सदृश वस्तुओं के आधार पर कहा जाता था । सत्रहवें अध्याय में आरोग्य सम्बन्धी प्रश्न का उत्तर पुष्प, फल, आभूषण आदि के आधार पर अथवा हास्य, गीत आदि भावों के आधार पर करने का निर्देश है । अठारहवें अध्याय में जीवन और मरण सम्बन्धी प्रश्नकथन का वर्णन है । कर्मद्वार नामक उन्नीसवें अध्याय में राजोपजीवी शिल्पी एवं उनके उपकरणों के सम्बन्ध में प्रश्नकथन क उल्लेख है। वृष्टिद्वार नामक बीसवें अध्याय में उत्तम वृष्टि और सस्यसम्पत्ति के विषय में फलकथन का निर्देश है, जो नावा, कोटिम्ब, डआलुआ नामक नौका, पद्म उत्पल, पुष्प, फल, कन्दमूल, तैल, घृत, दुग्ध, मधुपान, वृष्टि, स्तनित, मेघगर्जित, विद्युत् आदि के आधार पर किया जाता था । विजयद्वार नामक इक्कीसवें अध्याय में जय-पराजय सम्बन्धी कथन है। तालवृन्त, भृङ्गार, वैजयन्ती, जयविजय, पुस्समाणव, शिबिका, रथ, मूल्यवान् वस्त्र, माल्य, आभरण आदि के आधार पर यह फलकथन किया जाता था । उसमें पुस्समाणव (पुष्यमाणव) शब्द का उल्लेख महाभाष्य ७।२।२३ में आया है (महीपालवचः श्रुत्वा जुघुषुः पुष्यमाणवाः) । आगे पृष्ठ १६० पर भी सूत मागध के बाद पुष्यमाणव का उल्लेख हुआ है, जिससे सूचित होता है कि ये राजा के बन्दी मागध जैसे पार्श्वचर होते थे । इसी सूची में जय-विजय विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है । वराहमिहिर की बृहत्संहिता के अनुसार (अ० ४३, श्लोक ३९-४०) राज्य में सात प्रकार की ध्वजाएं शक्र-कुमारी कहलाती थी। उनमें सब से बड़ी शक्रजनित्री या इन्द्रमाता, उससे छोटी दो वसुन्धरा, उनसे छोटी दो जया विजया और उनसे छोटी दो नन्दा-उपनन्दा कहलाती थीं (पृ० १४६) । बाइसवाँ प्रशस्त नामक अध्याय है। इसमें उन उत्तम फलों की सूची है जिनका शुभ कथन किया जाता था । उनमें से कुछ विषय इस प्रकार थे-क्रय-विक्रय में लाभ, कर्म द्वारा प्राप्त लाभ, कीर्ति, वन्दना, मान, पूजा, उत्कृष्ट और कनिष्ठ शब्दों का श्रवण, सुन्दर केशविन्यास और मौलिबन्धन, केशाभिवर्धन, विवाह, विद्या, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001439
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Dalsukh Malvania, H C Bhayani
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages470
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size12 MB
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